________________
समकेतस्वरूपनी सद्याय.
(१५३)
॥ ५ ॥ एक संयमने बीजी क्षमा, शत्रु मित्र जेहने बेहु समा ॥ दृष्टिराग तरी ऊतरी, से जाशे जवसायर तरी ॥ ६ ॥ एक व्यापएं करी मन ठाम, जणे गुणे सिद्धांत प्रमाण || सगुरुनो उपदेश आचार, जोइ समजो 'हैये विचार ॥ ७ ॥ एक पहेरे सुनिवरनो वेश, पण साचो न दीये उप देश || जेह उन्हापे जिनवर वयण, तेहने किहां हियाना नयण ॥ ८ ॥ घर मूकीने या माहातमा, ममता जइ लागा आतमा ॥ महारं महासं एम कड़े घणुं, तेह मूरख वदनताएं || || एक तजी दीसे वे इस्या, लोने शिष्य करे करया || पंच महाव्रत कहे उच्चरे, उपशम रस ते कहो किम वरे ॥ १० ॥ श्रधाकर्मी वढोरे घणो, धर्म विगोवे जिनवर तणो ॥ यं त्र तंत्र मूली करी करी, चूरण आपे घर घर फरी ॥ ११ ॥ कुगुरु तथा जाणी अहि नाण, सेवा न करे जे होये जाए ॥ जिनवाणी सांगली यें इसी, सोनुं गुरु वे लीजें कसी ॥ १२ ॥ सोनाथी होय एक जब हाण, कुगुरु करे जवजवनी हाए | सोने घाठा पण ते मले, कुगुरु पसायें जब जव रुले ॥ १३ ॥ सर्प कसे हुए नवनो अंत, कुगुरु करे संसार अनंत ॥ एम जाणीवली लीजे साप, कुगुरु नमि नचि बोलिये आप ॥ १४ ॥ एक हे जिनवर प्राण, वैर वहे तिहां एक अजाण ॥ एह आपणा नहीं गुरु एम, बोली लीये वदंतु ते ॥ १५॥ एक नये माहारा गुरु देव में करवी एहि जनी सेव ॥ पक्ष तथा स्वामीने मान, छावर पहने दे अपमान ||१६|| एक सगा जाणी माहातमा, गुण पाखें तारे आतमा ॥ पात्र नगी पूजे तेहने, कहो समकित केम ते ॥ १७ ॥ देखी परखी गुरु गुणवंत, श्रावकने मन संयमवंत ॥ एद आपणा नहीं इम जणे, दान मान सघले अवगणे ॥ १८ ॥ एका ने गनो अनुराग, पण न लदे साचो जिनमाग ॥ वीर वचन लेने पाधरं कुगुरु सुगुरु जोइ आदरं ।। १८|| जेहने श्रागमनुं बहु मान, तेहना उघडे एणे कान ॥ए साधारण गुरुनी वात, जोइले लेजो मुक्ति मात॥श्ना हृदय नयन तमे जूर्ज सुजाण, ढंको कुगुरु ए जिन आए || सद्गुरु तथा चरण आचरो, जेम जवसायरलीखायें तरो ||२१|| जे जिन आप बहे निश दीश, ते ऊपर जे नाणे रीश ॥ नवे तत्त्व निरता सदहे, सधुं समकित छे ते क न्हे ॥ एवं समकित सुधुं जाए, धर्मकाजनुं मकरीश काण || जिनवर पूजा सगुरु जक्ति, जावें करवी श्रातम शक्ति ||२३|| डिक्कमने फालुं नीर,