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श्री विष्णुकुमार मुनिनी सद्याय.
( ३४१ )
बाद करे तस वाय ॥१॥ व्याकरणादिक बंद सब, काव्य कोष अलंकार ॥ न्याय तर्क साहित्य जे, निरुक्तादिक सुविचार ॥ २ ॥ वेद वेदांत पुराण पण, नास्तिक मत पण जोय ॥ पूज्या लघुशिष्ये तव, दीघा उत्तर सोय ॥३॥ एकमांहि शुल्लक मुनि, जीत्यो वाद में क्षिप्र ॥ मानजंग पाम्यो अमित ते, गयो गेह निज विप्र ॥ ४ ॥ दुष्ट जाव मनमें ज़ज्यो, मारुं मु निकूं आज ॥ सनामांदि दलवो कियो, सर्व गमावी लाज ॥ ५ ॥ ॥ ढाल बीजी ॥
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॥ उमर धरने कड़े जो ॥ ए देशी ॥ क्रोध करी ब्राह्मण जातें, गुरु मार श्राव्यो रातें, निर्दय खत मनुं हाथे रे । जैनधर्भ सुरतरु फलियो । के दुःख दोग दूरें टलियो रे | जैनधर्म० ॥ ए यांकणी ॥ धिविर निकर था व्यो ज्यारे, मारणखम धयुं त्यारे, श्रीजिन वचन है ये धारे रे || जैन || || एनो कांहिं नहिं दोष, अनुभव रस यात पोष, पण नहिं विप्र उपर रोष रे || जै० || ३ || कंचन कामिनी नहिं राता, ते गुरु खट जीवना त्राता ॥ जगत गुरु वत्सल ने चाता || जैन० ||१४|| शत्रु मित्र सम नहिं रीष, धर्म पाले विश्वा वीश, ते गुरु जगत्ना, ईश रे ॥ जैन० ॥ ५ ॥ आश मरण नहि होय तेने, सुख दुःख लाज न कहे कहेने, सुर सान्निध्य रहे नित्य तेने ॥ जैन० ॥ ६ ॥ जिनशासन सुर रखवाल, ज्ञानदेद आव्यो ततका ल, नमे मुनि चरण घरी जाल रे ॥ जैन ॥ ७ ॥ सुर कोप्यो द्विज परं जाडो, मारग वच्चें कस्यो वाढो, थंच्यो स्थंनपरें गाढो रे ॥ जैन ॥ ८ ॥ मारग रह्यो सहुजन देखे, सूर्य तदयें गुरु मुख देखे, जन्मकृतार्थ गणे लेखे रे ॥ जैन० ॥ ॥ धर्मराय वंदन आवे, प्रजालोक लहु सुख पावे, कृषि वंदी पावन थावे रे || जैन || १७ || नरेंवें स्वरूप जाएयो सबहीं, प्रधान उपर कोप्यो तबहीं, काव्यो नगरपकी व्यवहीं रे ॥ जैन० ॥ ११ ॥ ॥ दोहा ॥
॥ सेवकजन वोलायकें, कड़े इस्यो नृप धर्म ॥ इणे दुष्ट माहापापीयें, कर निविड महा कर्म ॥ १॥ एतुं मुख जोतुं नहीं, नहीं नगर में काम || काढो हांथी तेने, नहिं विलंबतुं गम ॥ २ ॥ चलंत पाप पहनें सही, करो नगरनी बादार || sषा सीम. रहेवे नहिं, करो देशनी पार ॥ ३ ॥ फट फट लोक करे सहु रे पापी निर्लज ॥ गुरु महोटा. संता पिया,
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