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सद्यायमाला.
जिन चक्री सारो, होशे पुत्र तुमारो रे ॥ द्वि० ॥ ६ ॥ सुपन विचार सुणी पाठकने, संतोषे नृप बहु दाने रें ॥ द्वि० ॥ सुपनपाठक घरे बोलावी, नृपराणी पासें घ्यावी रे ॥ द्वि० ॥ ७ ॥ सुपन कह्यां ते संखेने, सुख पामी प्रिया ततखेखेरे ॥ द्वि० ॥ गर्भपोषण करे दवे दर्पे, राणी नंद वर रे ॥ द्वि० ।। ८ ।। पंच विषय सुख रंगें विलसे, अब. पुण्यमनोरथ फलशे रे ॥ द्वि० ॥ एटले पूरुं त्रीजुं वखाण, करे माणक' जिनगुण ज्ञान रे ॥ द्वि० ॥ ए ॥
॥ श्रथ चतुर्थ व्याख्यान सचाय प्रारंभः ॥ ॥ ढाल पांचमी ॥
- प्रभु
॥ मन मोहनां रे लाल ॥ ए देशी ॥ धनद तो आदेशथी रे ॥ मन मोहनां रे लाल ॥ तिर्यग्जनक देव रे ॥ जग सोहनां रे लाल राय सिद्धा रथने घरे रे ॥ ०॥ वृष्टि करे नित्यमेव रे ॥ ज० ॥ १ ॥ कनक रयण मणि रौप्यनी रे ॥ म०॥ धण कण भूषण पान रे ॥ ज० ॥ वरसावे फल फूलनी रे ॥०॥ नूतन वस्त्र निधान रे ॥ ज० ॥२॥ बाधे दोलत दिन प्रत्यें रे ॥ म० ॥ तेणें वर्द्धमान देत रे ॥ ज० ॥ देशुं नामज तेहनुं रे ॥ म० ॥ मात पिता संकेत रे ॥ ज० ॥ ३ ॥ मातानी जक्ति करी रे ॥ म० || निश्चल - ! रह्या ताम रे ॥ ज० ॥ माता आरति ऊपनी रे ॥ म० ॥ शुं थयुं गर्जनें आमरे ॥ ज० ॥ ॥ ॥ चिंतातुर सदु देखीनें रे ॥ म० ॥ प्रभु हाल्या तेषि वाररे ॥ ज० ॥ हर्ष यो सहु लोकनें रे ॥ म० ॥ श्रानंदमय अपार रे ज० ॥ ५ ॥ उत्तम मोहला उपजे रे ॥ म० ॥ देवपूजादिक नाव रे ॥ ज० ॥ पूरण थाये ते सदु रे ॥ म० ॥ पूरव पुण्य प्रज्ञाव रे ॥ जं० ॥ ६ ॥ 'नव मास पूरा ऊपरें रे ॥ म० ॥ दिवस साहाडा सात रे ॥ ज० ॥ उच्च स्थानें महावतां रे ॥ म० ॥ वाये अनुकुल वात रे ॥ ज० ॥ ७ ॥ वसंत ऋतु वन मोरियां रे ॥ म० ॥ जन मन हर्ष न माय रे ॥ ज० ॥ चैत्र मास शुदि तेरशे रे || म० || जिन जन्म्या आधी रात रे ॥ ज० ॥ ८ ॥ वालुं त्रिहुं जग थयुं रे ॥ म० ॥ वरत्यो जय जयकार रे ॥ ज० ॥ चोथुं व खाण पूरण इहां रे ॥ म० ॥ बुध माणक विजय हितकार रे ॥ ज० ॥ ए ॥ ॥ अथ पंचम व्याख्यान साय प्रारंभः ॥
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॥ ढाल बही ॥ सुखों मोरी सजनी रजनी न जावे रे।। ए देश ॥ जननो