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श्री विजयकुंवर विजया कुंवरीनी सद्याय.
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चारित्र चित्तमें पोरे ॥ इद जब परजव सुखदायक ए सम, अवर न कां जाणो रे ॥ सा० ॥ ५ ॥ सिद्धंजव सूरियें रचीयां, दश अध्ययन रसा लां रे ॥ मनकपुत्र देते ते जणतां, लहियें मंगलमाला रे ॥ सा०||६|| श्रीवि जयप्रसूरिने राज्य, बुध लाज विजयने शिष्यें रे ॥ वृद्धि विजय विबुध या चार ए, गायो सकल जगीरों रे ॥ सा ॥ ॥ इति दशवैकालिक सद्याय सं ॥ श्रथ लालचंदरुषिकृत श्री विजयकुंवर ने विजयाकुंजरीनी सवाय ॥ ॥ लावणीनी देशी मां ॥ श्रीवीतराग जिनदेव नमुं शिर नामी, कहूं शी तो अधिकार, मुक्ति जिस पानी । एक वत्सदेश में कोसं बिनगरी जा णी, ते दक्षिण देशमें प्रगटपणे वखाणी ॥ तिहां शेव तणो सुत विजय कुमर वैरागी, सुणि शीलतो महिमा मनमें लय लागी ॥ तब हाथ जोड कर सुनिपें सोगन मागी, हुआ एक मासमें कृष्णपक्षका त्यागी ॥ ॥ १ ॥ धन विजय कुमरकी करी कली कटु नांजी, चित्त चोखे. शील आद नरजोवनसां जी ॥ ए आंकणी ॥ पाले श्रावक धर्म शुद्धज्ञान मुख उच्चरे, पोसह पडिकमणां संवर करता विचरे ॥ करि दया दान संतोष शील शुद्ध पाले, धरि धर्म ध्यान और त्र्यातमकूं खजुखाले ॥ दृढ समकितधारी शंका कंखा नवि आणे, पर पाखनीको पखो नहीं वखा ऐ || देवादिकनां दुःख देखी धर्म नवि ढंगे, चढते परिणामें करणी अधिकी मं ॥ धन० ॥ २ ॥ पुष्ययोगें विजयाकुमरी मली गुणवंती, शुद्ध चोराठ कलानी जाए महा बुद्धिवंती ॥ गजगमणी रमणी बोले को किल वाणी, तनुं कंचन सोदे बदन जाल जलकाणी ॥ अति अधर बा
कोमल कपोल बहु सोदे, कर चरण उदर मुखकमल जोइ मन मोहे ॥ वहु दर्ष जावशुं विजय कुमरजी तीहां, पुष्ययोगें जोड मली पर घर प्रीया ॥ धन ॥ ३ ॥ हवे विजय कुमरजी की सोहे सुंदरताई, अब सुर सुंदरकी देवरूप बचि बाइ ॥ विदु कानें कुंभल रखें जडियां सोहे, शिर लाल मुकुट मुक्ताफल सुर नर मोहे ॥ गले हार रखें जडिया सोहे बहु जारी, कर कंकण चमकण मुद्रडीयां बबि न्यारे। ॥ अरु बदन जाल निर्म ल शशि नेत्रें सोहे, इत्यादिक गुण करि विजयकुमर मन मोढ़े ॥ धन० ॥ ॥ ४ ॥ तव रंग महेल में बेठे पलंग बिठाई, प्रीतमकी सेजां सुंदर तन सज आई ॥ पियालां कजल वीजलीयां चमकंती, करजोडी ऊनी
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