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संघायमाला..
तहारों कीधां तुं जोगवे जीव ॥ ज० ॥ धन्यासें आणी शुद्ध ध्यान, केव ल ल हि पाम्यो, शिवथान ॥ ज० ॥ १५ ॥ संवत सत्तर सडताले उह्वास, शहेर राणकपुर कस्युं चौमास ॥ ज० ॥ कहे कवियण कर जोडी देव, मु क्तिणां फल देजो देव ॥ ज० ॥ १६ ॥ इति ॥
॥ अथ श्री जिनरख ने जिनपालनुं चोढालीयुं प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥
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॥ अनंत सिद्ध श्रागें हुवा, वली दोवंता जेद ॥ श्रनागते जे दोयशे, हुं प्रयमं धरि नेह ॥ १ ॥ पाप थढारे जिन कलां, परिग्रह महा विकरा ल ॥ प्रीति मैत्रीने गणे नहीं, सह गुणने दिये बालिः ॥ ३ ॥ दोष दाता छे. परिग्रहो, महोटी माया जाल | दोनुं जाइयें दुःख सह्यां, जिनरखं ने जिनपाल ॥ ३ ॥ घरसां धन वे यति घणुं, तोय न पूगी हाम ॥ पची र ह्या प्राणीया, केम पामे वलि ठाम ॥ ४ ॥ कोण नगरी बसता हता, के म दुःख सह्यां अपार ॥ सावधान थन् सांजलो, तेहनो कहुं विस्तार ॥५ ॥ ॥ ढाल पहेली ||
॥ चंपा रे नगरी रलियामणी, दीठे ते हर्षित थाय रे ॥ लोक व्यापा री अति जला, वली शेठ घणा तिणमांय रे ॥ धनना रे लोजी वाणीयां ॥ १ ॥ ए क ॥ शेठ मुकुंदना दीकरा, दोनुं वडा व्यापारी रे ॥ ना वने लेइ समुद्रमां, उतस्या वार अभीयारी रे ॥ ध० ॥ २ ॥ लाज कमावी लावीया, मेली माया जारी रे || लोन मढ्यो नहिं मांहेलो, बारमी वार, दुवा] तैयारी रे ॥ घ० ॥ ३ ॥ यावी मा बापने एम कडे, छामें जाशुं समु
व्यापार रे ॥ मा वापे इस्युं कयुं, जली नहिं बारमी वार रें ॥ ध० ॥ ४ ॥ धन संचयुं बे मोकलुं, एक दिन लागे लेखे रे ॥ सात पेढी लगें नहिं टले, अणघटतां दुःख कोण देखे रे ॥ ॥ ध० ॥ ५ ॥ मा बायें वचन कह्यां ari, पण ते नहिं कांइ पाले रे ॥ सर्व दोलत लइ तिहांथकी, समुद्रम हे ते चाले रे ॥ ० ॥ ६ ॥ अनेक योजन गया पठी, उठीयो: उल्कापात' रे ॥ देखीने मनमां चम किया, ए तो वेगली दीसे बे वात रे ॥ ध० ॥ ॥ याकारों वीज गाजीयो, नावो कंपवा लागी रे || वायरे चली देवी पठी, कांइक नांगर जांगी रे ॥ घ० ॥ ७॥ विद्याधरनी दीकरी, विद्या विसरतो, पढ़तावे रे ॥ गरुड देखी वासुकी डिपे, दर बाहिर जेम नावे रे ॥ ६० ॥
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