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सद्यायमाला.
श्रीश सजाय ॥ उदय विजय वाचक जणे रे, जेहथकी नव निधि याय ॥ प० ॥ ७ ॥ इति श्री उत्तराध्ययन षत्रिंशाध्ययनानी सच्चायोः संपूर्णाः ॥ : ॥ अथ श्री मेरु विजयजीकृत नंदीषेण संधाय प्रारंभः ॥
॥ राजगृही नगरी नो वासी, श्रेणिकनो सुत सुविलासी हो ॥ मुनिवर वैरागी ॥ नंदी षेण देशना सुणी जीनो, जिन कहे तां व्रत लीनो हो ॥ मु० | | | चारित्र नित्य चोखुं पाले, संयम रमणीशुं माले हो ॥ मु० ॥ एक दि न जिन पाये लागी, गोचरीनी खाज्ञा मागी हो ॥ मु० ॥ २ ॥ पांगरी यो मुनि बरवा, कुधावेदनी कर्म हरेवा हो ॥ मु० ॥ उंच नींच मध्यम कुल मोहोटा, घटतो संयमरस लोटा हो ॥ मु० ॥ ३ ॥ एक उंचुं धवल घर दे खी, मुनिवर पेठो शुद्ध गवेषी हो ॥ मु० ॥ तिहां जइ दीधो धर्मलाज, वे श्या कहे श्हां अर्थ लाज हो ॥ मु० ॥ ४ ॥ मुनियें मन अभिमान पी, खं करि नांख्यो तरणं ताणी हो ॥ मु० ॥ सोवन वृष्टि हुइ बार को डी, वेश्याविनता रही कर जोडी हो ॥ मु० ॥ ५ ॥ इति ॥
॥ अथ श्री चोथमलजी कृत आयु स्थिरनी सद्याय प्रारंभः ॥
॥ आखा त्रुटानें सांधो को नहीं रे, तिए कारण म करो जीव प्रमा द रे || जरा थव्याने शरणुं को नहीं रे, हिंसा बोडिने दया पाल रे || ॥ १ ॥ कुटुंब कबीला नारी कारणें रे, मूरख संच्यां बहुलां पाप रे ॥ चोर तणी परें की ऊरशो रे, सदेशो इह लोक परलोक संताप रे ॥ ॥ आ० ॥ २ ॥ नंचां चणाव्यां मंदिर मालियां रे, दे दे धरती में नमी नीवरे ॥ एक दिन जाण्यो ऊठी चल्यो रे, सुख दुःख सहे आप यो जीव रे ॥ ० ॥ ३ ॥ चक्रवर्त्ती हरिबल राणो केसवो रे, जोजो वली इंद्र सुरांरो नाथ रे ॥ उगी उगीने उवेही आथम्यो रे, जो जो कोइ च रिजवाली थाथ रे | आप ॥ ४ ॥ अथिर संसार तजी मुनि नीसख्या रे, करता मुनि नवल विहार रे ॥ जारंग पंखीनी दीधी उपमां रे, न घरे म मता मोह लगार रे || आप ॥ ५ ॥ चारित्र पाले रूडी रीतशुं रे, देवे मु नि आपनो उपदेश रे ॥ तिको मुनिवर सीधाशे मोक्षनें रे, जस लेइ इहलोक परलोक रे ॥ ॥ ६ ॥ शब्दरूप देखी समता धरो रे, करो मुनि मणियारो नमान रे ॥ ऋषि चोथम सूत्र दे खिनें रे, जो डकीधी जालोर मज़ार रे ॥ ० ॥ ७ ॥ इति ॥ .
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