Book Title: Satya Dipak ki Jwalant Jyot Author(s): Kiranyashashreeji Publisher: Atmanand Jain SabhaPage 52
________________ अवसर्पिणी कालकी सर्व प्रथम मोक्षगामी आत्माके गौरवसे गौरवान्वित बननेका परम सौभाग्य प्राप्त करती है। वीतराग श्री ऋषभदेवजीके केवलज्ञानकी प्राप्तिके प्रसंगसे चारों निकायके देवों द्वारा भक्ति स्वरूप चाँदी, सुवर्ण, रत्नादि युक्त समवसरण' निवेशित किया जाता है। नर-नारी-साधुसाध्वी, देव-देवी स्वरूप बारह पर्षदा' मध्य इस अवसर्पिणी कालके प्रथम केवली-अरिहंतपैंतीस गुणालंकृत गिरासे भव्य जीवोंको भव-निस्तारिणी देशना देते हैं। उस समय ऋषभसेन पुंडरिकादि अनेक राजा-राजकुमारादिने आत्म कल्याणकारी चारित्र अंगीकार किया। आपने हज़ार वर्ष कम एक लाख पूर्व वर्ष पर्यंत केवली पर्यायमें विचरण करके भव्य जीवों के लिए शिक्षा-दीक्षा और आत्म कल्याणकारी धर्मका प्रादुर्भाव-प्रचलन-प्रसारण किया। आपकी निश्रामें पुंडरिकादि ८४ गणधर', ८४००० साधु, ब्राह्मी-सुंदरी आदि तीन लाख साध्वियाँ, श्रेयांसादि ३,०५,००० श्रावक, सुभद्रादि ५,५४,००० श्राविकारूप चतुर्विध संघने आत्म कल्याण किया। इस अवसर्पिणीकालके युगलिक धर्म निवारक, प्रथम भूपति, प्रथम साधु, प्रथम ब्रह्मचारी, प्रथम के वली, प्रथम धर्म प्ररूपक, प्रथम तीर्थपति, प्रथम अरिहंत श्री ऋषभदेव (श्री आदिनाथजी) महा कृष्णा त्रयोदशीके दिन अष्टापद पर्वतके शिखर पर १०,००० साधुओं के साथ, निर्जल छः उपवास युक्त, अभिजित नक्षत्रमें चंद्रका योग प्राप्त होने पर पल्यंकासनमें विराजित-संसार सागरसे निस्तार करानेवाले-सर्व सांसारिक दुःखोंका अन्त करानेवाले-निर्वाणपदको-परमपदसिद्ध पदको प्राप्त कर सिद्धशिला पर विराजित हुए। अन्य तीर्थंकरोका जीवन चरित्र-(सामान्य परिचय) प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथजीके निर्वाणानंतर ५० लाख क्रोड़ सागरोपम में बहत्तर लाख पूर्व वर्ष न्यून काल शेष रहते हुए द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथजीका च्यवन हुआ, जन्म हुआ यावत् निर्वाण हुआ। पाँचों कल्याणकका स्वरूप चौबीस तीर्थंकरोंकी तालिका से दृष्टव्य है। प्रत्येक दो तीर्थंकरों के बीच-अल्पकालीन तीर्थंकरोंका विरह होता है। पूर्व तीर्थंकरके निर्वाण पश्चात् उन्हींका शासनकाल माना जाता है, जब तक परवर्ती तीर्थंकरको केवलज्ञान नहीं होता है। परवर्ती तीर्थंकरके केवलज्ञान-प्राप्तिके पश्चात् उनके तीर्थके आविष्कारसे पूर्व तीर्थंकरका चतुर्विध संघ नूतन तीर्थंकरका शासन शिरोमान्य कर लेते हैं। यही क्रम अनादिकालीन अनंत चौबीसीके चौबीस तीर्थंकरोंमें परम्परासे अबाधित चलता रहता है। सामान्यतया प्रत्येक तीर्थंकर पूर्वके किसी जन्ममें प्रायः कोईनकोई निमित्त से सम्यक्त्व' की प्राप्ति करते हैं और तीर्थंकर भवकी अपेक्षा पूर्वके तृतीय भवमें तीर्थंकर नामकर्म (25) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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