Book Title: Satya Dipak ki Jwalant Jyot
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 186
________________ सिद्ध किया है। इससे भी एक कदम आगे उनको मुस्लिम समान (भक्ष्याभक्ष्य विवेकहीनमूर्तिभंजक आदि रूपमें) सिद्ध किया है। तैंतालीसवें प्रश्नोत्तरमें मुंहपत्ति मुंह पर बांधनी या हाथमें रखनी'-इसकी चर्चा करते हुए मृगापुत्रके उदाहरण द्वारा एवं अंगचूलिया, आवश्यक सूत्रादिसे एवं अन्य अनेक युक्तियुक्त तर्क से मुंहपत्तिको निरंतर मुंह पर बांधने का निषेध सिद्ध करके मुंहपति मुखके सामने बोलते समय हाथमें रखना सिद्ध किया है। !तालीसवें प्रश्नोत्तर में-“देव, जिनप्रतिमा पूजन करके संसार वृद्धि करते हैं।" इसके प्रत्युत्तर में राजप्रश्नीय सूत्र आधारित पूजाफल---हित, सुख, योग्यता और परंपरित मोक्षफल प्रापक दर्शाकर आवश्यक सूत्रानुसार फल प्राप्ति भावानुसार सिद्ध की है। पैंतालीसवें प्रश्नोत्तर में-श्रावक के सिद्धान्त पठनके अनधिकारकी चर्चा करते हए भगवती सूत्रमें तुंगीया नगरीके श्रावक का, व्यवहार सूत्रमें सिद्धान्त ग्रहण करने की योग्यताका; प्रश्न व्याकरण, दशवैकालिक, आचारांग, निशीथ, स्थानांगादि अनेक सूत्रोंसे श्रावकको सूत्र-सिद्धान्त पठनका अनधिकारी सिद्ध किया है। छियालिसवें प्रश्नोत्तरमें-“मूर्तिपूजक हिंसा धर्मी है"-इस मान्यताके प्रत्युत्तरमें 'दया' की आलबेल पुकारनेवाले हिंसाधर्मी ढूंढकों की हिंसक प्रवृत्तियों को स्पष्ट किया है-पीने के उपयोगके लिए उनके माने अचित पानीमें पंचेन्द्रिय-सम्मूर्छिम-बेइन्द्रियादि अनेक जीवोत्पत्ति युक्त पानीका उपयोग, बासी-सडा हुआ-द्विदल-शहद-मक्खन-कंदमूलादि भक्ष्याभक्ष्यके विवेक शून्य-भोजी, मुंहपत्ति निरंतर बांधे रखने के कारण अनेक जीवोत्पत्ति, अशुचिकी शुद्धि भी न करना आदि अनेक आचारों को स्पष्ट किया है। निष्कर्ष-इस प्रकार इस ग्रन्थमें ग्रन्थकारने अपने विशद और गहन अध्ययनके बल पर सत्यशुद्ध-सैद्धान्ति प्ररूपणाओंका मंडन और जिनवाणी-जिनागम एवं गीतार्थ गुर्वादि रचित पंचांगी रूप अनेक शास्त्र विरुद्ध-मनघंडत-कपोल कल्पित-मिथ्या प्ररूपणाओं का खंडन करके भव्यज-नोंको गमराह होनेसे बचा लेनेका महान उपकार किया है। इस ग्रन्थके वाचन-मनन-मंथनसे अनेक साधु एवं श्रावकों ने मिथ्या राहको छोड़कर शुद्ध सत्यराहको अपनाया है। _--- तत्त्व निर्णय प्रासाद ..... प्रथम स्तम्भः-समवसरणके वर्णन युक्त-राग द्वेषादि अंतरंग शत्रु विजेता सर्व जिनेश्वर देवों की; युगादिदेव श्री ऋषभदे की, बाईस तीर्थंकरोंकी, चरम तीर्थपति श्री महावीर स्वामीजीकी, गणधर गौतम-पूर्वाचार्योंकी, सरस्वती देवी-शासन रक्षक देव-देवी-समकिती देव-देवीकी अनेक श्लोकोंसे मंगलाचरण रूप स्तुति करते हुए ग्रन्थारम्भ किया है। प्रारम्भमें माध्यस्थतासे सत्यधर्मके निश्चय और निश्चित सत्य धर्मके स्वीकारकी भव्य जीवों को प्रेरणा देते हुए प्रो. मेक्समूलरके अभिप्रायसे वर्तमानमें मान्य प्राचीनतम वेदमंत्रजरथोस्ती धर्म आदिसे भी अधिकतम प्राच्य जैनधर्म और धर्म पुस्तकों को सिद्ध करके जैन (159) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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