Book Title: Satya Dipak ki Jwalant Jyot
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 233
________________ ___३९. परिषह-उपसर्ग-- प्रतिदिन जीवन व्यवहार में प्राकृतिक या अन्य जीवों द्वारा आनेवाले अवरोध या प्रतिकूलतायें, कर्म निर्जरामें सहायक रूप मानकर या उस उद्देश्यसे स्वेच्छासे सहन करें वह परिषह और विशिष्ट आराधना अथवा अवसरों पर अन्य जीवों द्वारा होनेवाले अवरोध-प्रतिकूलतायें उपसर्ग कहलाती हैं । परिषह बाईस हैं और उपसर्ग तीन प्रकारके होते हैं-देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यंचकृत४०. पल्योपम- विशिष्ट काल परिमाण-असंख्यात वर्ष व्यतीत होने पर एक पल्योपम होता है | ४१. पापानुबंधी--- जिस कर्मके उदयकालमें जीव पापकर्मके बंध-अनुबंध करें वह पापानुबंधी पाप(या पुण्य) कहा जाता ४२. पुण्यानुबंधी-- जिस कर्मके उदयकालमें जीव पुण्यकर्मका बंध-अनुबंध करें उसे पुण्यानुबंधी पुण्य या.(पाप) कहते ४३. पूर्व वर्ष-- ३६५ दिन = १ वर्षः ७०५६००० कोड़वर्ष = १ पूर्व वर्ष (८४ लाख वर्ष x ८४ लाख वर्ष = १ पूर्वांग, ८४ लक्ष पूर्वांग = १ पूर्व) ४४. प्रातिहार्य--- (देखिए अष्ट प्रातिहार्य) ४५. बारह पर्षदा- श्री अरिहंत भगवंत जिस सभाके समक्ष (जो उनके निकट प्रथम प्राकारमें बैठते हैं। देशना देते हैं, वह पर्षदा कहलाती है। और उस देशनाको श्रवणकर्ता-श्रोता-बारह प्रकारके होते हैं- वैमानिक, ज्योतिष्क, भुवनपति, व्यंतर-ये चार प्रकारके देवः उन्हींकी चार प्रकारकी देवियाँ और साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका-चार प्रकारके मनुष्य । (तिर्यंच भी देशना श्रवण हेतु आते हैं, लेकिन उनका स्थान पर्षदामें नहीं, द्वितीय प्राकारमें होता है । पर्षदा प्रथम प्राकारमें ही बैठती है।) ४६. बीस स्थानक-- इस तपके तपस्वी उत्कृष्ट भावाराधना द्वारा तीर्थंकर नामकर्म निकाचित कर सकते हैं। जिनके नाम और गुण हैं- अरिहंत-१२, सिद्ध-८/३१, प्रवचन-२७. आचार्य-३६, स्थविर-१०, उपाध्याय-२५. साधुपद-२७, ज्ञानपद५१, दर्शन-६७, विनय-५२, चारित्र-७०, ब्रह्मचर्य-१८. क्रिया-२५, तप-१२, गौतम-११, जिनपद-२०, संयम-१७, अभिनवज्ञान-श्रुत-२०, तीर्थपद-३८ (भ.महावीरजीने ४०० मासक्षमण द्वारा इसकी आराधना की थी) . ४७. भव्य-अभव्य जीव-जो निगोदकी अव्यवहार राशिसे निकलकर व्यवहार राशिमें आते हैं, यथावसर धर्म पुरुषार्थ करके, संपूर्ण कर्म निर्जरा होने पर मोक्ष प्राप्त करते हैं उसे भव्यजीव कहते हैं । जिन्हें अवसर मिलने पर भी मोक्ष पुरुषार्थका मन ही नहीं होता है। उसे अभव्य जीव कहते हैं। ४८. मति-श्रुत-अवधि- ज्ञानके पांच भेदमेंसे ये प्रथम तीन भेद हैं- मति और श्रुत परोक्ष (किसी साधन द्वारा और इन्द्रिय एवं मनके सहयोगसे प्राप्त होनेवाला) ज्ञान है और अवधि प्रत्यक्ष ज्ञान है-जो आत्माको स्वयं होता है। ४९. मेतार्य मुनि- गौचरी (भिक्षा के लिए गए मेतार्य मुनिने क्रौंच पक्षीकी रक्षाके लिए स्वर्णकारकी पृच्छा पर मौन धारण किया और आमरणांत उपसर्ग समभावसे सहते हुए केवलज्ञान उपलब्ध करके मोक्ष प्राप्ति की। ५०. मोक्ष- सर्व कर्मोंका आत्मासे विघटन अर्थात् जीवकी सर्व कर्मोंसे मुक्ति; जिसके बाद आत्मा सिद्धशिला पर अनंतकालके लिए, शाश्वत भावसे स्थिर होती है। तत्पश्चात् संसारमें आत्माका पुनरागमन नहीं होता है। ५१. मौन एकादशी- मृगशिर शुक्ल एकादशीका दिन | जैन पर्वोमें उत्तम आराधनाका यह पर्व है | इस दिन मनुष्य क्षेत्रके (भरत-ऐरावतकेदस क्षेत्रके) ९० जिनेश्वरोंके १५० कल्याणकोंकी मौन पूर्वक-पौषध-व्रत सहित आराधना की जाती है। युगलिक प्रथा-- जिसमें मनुष्य या तिर्यंच-सभी नर-मादाके युगल रूपमें एक साथ जन्म लेते हैं और एक साथ ही मरते हैं । उनकी जीवन व्यवहारकी प्रत्येक आवश्यकता देवाधिष्ठित कल्पवृक्ष पूर्ण करते हैं । उनकी आयु और अवगाहना अत्यंत दीर्घ होते हैं। वे भद्रिक परिणामी होते हैं अतः मर कर देवलोकमें ही जाते हैं। योगोदहन-- जैन धर्मके शास्त्रोंके अध्ययनकी योग्यता प्राप्त करने हेतु साधु या साध्वी द्वारा तद्तद् शास्त्र या सूत्रानुसार आचरणीय विशिष्ट तप सहित अनुष्ठान-विधि जो गीतार्थ या पदवीधर साधुकी निश्रामें होता है। रत्नप्रभा- जैन भूगोलानुसार अधोलोकमें सात नरक हैं जिनमें प्रथम नरक रत्नप्रभा है। उसकी जमीन रत्न जैसे चमकीले पत्थरोंकी बनी हुई होनेसे उसे रत्नप्रभा पृथ्वी कहते हैं। ५२, . (IV) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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