Book Title: Satya Dipak ki Jwalant Jyot
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 231
________________ १२ केवलदर्शन- १३. केवलज्ञान दर्शनावरणीय और ज्ञानावरणीय कर्मोंके संपूर्ण क्षय होने पर उपलक्षणसे चार घातीकर्मक्षय होने पर लोकालोकके स्वरूपको प्रकाशित करनेवाला, त्रिकालवर्ती- त्रिकालाबाधित, सर्व द्रव्योंको सर्व पर्यायोंको एक समयमें सर्वांग संपूर्ण रूप से ज्ञात करानेवाला, अक्रमिक, देश कालकी परिच्छिनता रहित, मन-वचनकाय योगसे अगम्य अगोचर, पदार्थको आत्मज्ञानसे स्वयं प्रतिबिम्बित करनेवाला, परम ज्योति स्वरूप, सादि अनंत स्थितिवाला, नित्य, प्रामाणिक ज्ञानको ही केवलज्ञान कहते हैं। उसी रूपमें होनेवाले दर्शनको केवल दर्शन कहते हैं। क्षपक श्रेणि--- सर्व घाती कर्मक्षय हेतु, आत्माकी विशिष्ट भाव दशा-ध्यान दशा - अप्रमत्त भाव की केवल ज्ञान प्राप्ति पर्यंत श्रेणि गणधर - एक शिष्य समुदाय जिस गुरुके पास ज्ञान-शिक्षा-संस्कारादि प्राप्त करता है उस समुदायको धारण करनेवाला व्यक्ति-गुरु-गणधर कहलाता है। अथवा तीर्थंकरके प्रमुख (त्रिपदीसे द्वादशांगीके रचयिता ) शिष्य गणधर कहलाते हैं। १४ १५ کیا १८ १९. २०. २१. 23 २३. २४. --- चार अघाती - १७. चार घाती कर्म-जो आत्माके मूल गुणोंका घात नहीं करते हैं, लेकिन केवल - ज्ञान प्राप्ति पश्चात् भी परिनिर्वाण मोक्ष तक आत्माका साथ निभाते हैं। वे चार हैं- वेदनीय कर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म, आयुष्यकर्म । जो आत्माके चार मूल गुण-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अव्याबाधता के आवरक या घात करनेवाले चार घातीकर्म (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अंतराय) हैं। जो केवलज्ञान-केवलदर्शनकी उपलब्धि नहीं होने देते । (विशेष स्वरूप कर्मग्रन्थ, कम्मपयड़ी, पंचसंग्रह आदिसे जान सकते हैं ।) चार अनुयोग-सकल जैन श्रुतज्ञान ( आगमज्ञान) चार अनुयोगमें समाहित किया गया है । पूर्वकालमें एक ही सूत्रमें स्थित चारों अनुयोगोंको उन्नीसवें युगप्रधान साहेनव पूर्वधर श्री आर्यरक्षित सूरिजीम द्वारा भावि विद्वद्वर्ग एवं अपने शिष्य श्री विंध्यमुनिकी अध्ययन सरलताके कारण भिन्न भिन्न चार अनुयोगों में विभाजित किया गया । यहाँ अनुयोग अर्थात् व्याख्यान अथवा शास्त्र सिद्धान्त बोधके लिए अनुकूल ज्ञान व्यापार । द्रव्यानुयोगः- जिसमें विश्व के चौदह राजलोकके द्रव्य (पदार्थों) और पर्यायोंका संपूर्ण स्वरूप निहित है; चरणकरणानुयोग :- जिसमें साधु-साध्वी, उपलक्षणसे श्रावक-श्राविका (गृहस्थ ) के आत्म स्वरूप प्राप्तिके लिए आचरण योग्य क्रियायें, रत्नत्रयीरूपदर्शन, ज्ञान चारित्र के स्वरूपादिका निरूपण है; गणितानुयोग जिसमें ज्योतिष्क, भूस्तर शास्त्र, खगोल, विज्ञान, अंकादि गाणितिक विषयोंका आलेखन हैं; धर्मकथानुयोग :- जिसमें विविध सैद्धान्तिक विषयोंको समस्याओंकोधर्माचरणोंको कथानकों द्वारा सरल स्वरूपसे समझाया जाता है । चौंतीस अतिशय --- श्री अरिहंतके जीवको सर्वोत्कृष्ट पुण्यके कारण ऐसे विशिष्ट गुणोंकी संप्राप्ति होती है, जो सुख अन्य कोई भी जीवोंको उपलब्ध नहीं होता है। जिनमें चार अतिशय जन्मसे ही प्राप्त होते हैं; चार घातीकर्म क्षयसे ग्यारह अतिशय - प्राकृतिक अनुकूलतायें प्रसन्नतायें आदिके रूपमें और उन्नीस अतिशय - देवकृत होते हैं। (विशेष स्वरूप त्रिषष्ठी शलाका पुरुषादि ग्रन्थोंसे ज्ञातव्य है ।) चौदह महास्वप्न --- बहतर प्रकारके स्वप्नमेंसे प्रमुख चौदह स्वप्नोंको महास्वप्न कहा जाता है। स्वप्नशास्त्रानुसार चक्रवर्ती अथवा तीर्थंकरोंका माताकी कुक्षिमें अवतरण होता है, तब अर्धरात्रि में तीर्थंकरोंकी माता स्पष्टरूपसे और चक्रवर्तीकी माता धुंधले स्वप्न निरख कर जागृत होती है। वे चौदह स्वप्न है- गजवर, वृषभ केसरीसिंह, लक्ष्मीदेवी, पुष्पमालायुगल, चंद्र, सूर्य, ध्वजा, पूर्णकलश, पद्मसरोत्तर, रत्नाकर, देवविमान, रत्नराशि, निर्धूम अग्नि (विशेष स्वरूपके लिए देखिये 'कल्पसूत्र आदि जैन ग्रन्थ) छद्मस्थ--- प्रत्येक जीवकी केवलज्ञान प्राप्तिकी पूर्वावस्था जब जीवमें अपूर्णता-अज्ञानता होती है । जंबूद्वीप-- चौदह राजलोकमें तिचर्च्छा लोककी मध्यका प्रथम द्वीप (विशेष परिचय चित्रमें) जाति स्मरण ज्ञान -- व्यक्तिको होनेवाला ऐसा ज्ञान, जिसके माध्यमसे पूर्व जन्मोंकी प्रायः नव भव पर्यंतकी स्मृति हों - ज्ञान हों जीवयोनि योनिकी शास्त्रीय परिभाषा है- कर्माधीन आत्मा तैजस कार्मण शरीर नामक नामकर्मके कारण उन कर्मफल भोगनेके लिए आत्मा द्वारा औदारिक वैक्रियादि शरीर नामक नामकर्म योग्य पुद्गल स्कन्धोंके समुदायका जहा मिश्रण होता है (जिसे जीवका जन्म कहते हैं) उस मिश्रण स्थानको योनि कहा जाता है। योनि ८४ लक्ष हैं । Jain Education International II For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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