Book Title: Satya Dipak ki Jwalant Jyot
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 229
________________ होने नहीं पाया है । शायद यह संभव है, कि उनकी तमन्ना ऐसे विविध राग-रागिणियोंमें ढले हुए कवनोंके प्रचारसे निम्नकोटिके या फूटकलिया संगीतकवनोंसे सहृदय भाविक भव्य जीवोंको आंतर्दृष्टिकी ओर मोड़नेकी हों । इसके साथ समाजकी जागृत श्रद्धाको स्थिरत्व प्रदानके कारण अन्य लक्ष्य बिंदु यह भी हो सकता है कि, उनके विचरण क्षेत्र पंजाब-राजस्थानादिमें उन दिनों प्रतिमा पूजनका विरोध अपनी चरमावस्थामें था, अतः समाजको उस विपरित दशासे उद्धारने हेतु स्नावपूजा, अष्टप्रकारीपूजा, सत्रहभेदीपूजा आदि पूजा साहित्य समन्वित है । उनके काव्योंके अभिव्यंजनात्मक दृष्टिसे परिशीलनसे प्रकट है कि उनकी रचनायें विविध देशी, शास्त्रीय राग-रागिणि और कुछ छंदोंके त्रिवेणी संगम स्वरूप है । मधुर लालित्ययुक्त, चित्रात्मक बिम्ब विधान या प्रतीक विधान, विभिन्न सजीव अलंकारादि द्वारा भगवद्भक्ति, मुक्ति और शक्ति सामर्थ्यका प्रवाह अभिभावकको प्रभावित किये बिना नहीं रहता । 'बीसस्थानकपूजा' या 'नवपदपूजा में तात्त्विक-दुरूह पदार्थों और प्ररूपणाओंको भी लोक हृदयमें स्थापित करनेके लिए पूजा साहित्यमें ढाला गया-लोकप्रिय बनाया गया । जिनके 'दर्शन पद मनमें बस्यो, तब सब रंगरोला....' या 'सूरिजन अर्चन सुरतरुकंद' आदिका गुंजन निशदिन कानोंमें गुंजता रहता है। इस तरह जैन समाजकी ज्ञान-भक्ति और क्रियाके समन्वय संगम स्थान रूप उनका पद्य साहित्य गद्यके परिमाणमें अल्प होने पर भी उतना ही असरकारक प्रभावोत्पादक एवं प्रतिभावान्-भक्त हृदयके मस्ती भरे अनुभवोंके आलेखनका रसास्वाद वाकयी कल्याणमयी निष्कर्ष :- बीसवीं शतीके शासनप्रभावक, प्रवचनप्रभावक, युगप्रभावक, समर्पित शासन सेवक एवं सत्यनिष्ठ आध्यात्मिक वड़वीर-समाजनेता, धर्मनेता, युगप्रणेता, प्रकर्ष पुण्य प्रकाशसे उज्ज्वल यशधारी, विश्ववंद्य विरल विभूतिको समर्पित श्री आशिष जैनकी श्रद्धांजलिका अंश अत्र उद्धत है-“यदि स्वयं वीणावादिनी मां शारदा आपकी अनूठी शासनसेवाकी श्लाघा हेतु प्रशंसाओंके पर्वत रच दें या उपमाओंके सागर सुखा दें तो भी अपने भक्ति पूरित मनको तृप्त नहीं कर पायेगी । हंसते हंसते कष्टोंका आलिंगन करनेवाले अगाध आत्म शक्ति सम्पन्न आचार्यदेवके जीवन वैभवकी यह झलक सिंधुमें बिंदुसे भी न्यून है।" इससे अधिक कोई अन्य व्यक्ति क्या कह सकता है ! मैंभी इन्हीं मनोवृत्तियुक्त अनुभूत भावनाओंको प्रस्तुत करते हुए इस शोध प्रबन्धको सम्पन्न करुंगी-यथा“स्याद्वाद भंगिभरभासुरमस्य बोधं, भव्यांमिमान समरालसहस्त्र पत्रम् । शक्तो भवामि ननु वर्णयितुं कथं यत्, को वा तरीतुमलमंबुनिधिं भुजाभ्याम् ॥ "जय श्रीवीतराग, जय श्रीगुरुदेव (202) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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