Book Title: Satya Dipak ki Jwalant Jyot
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 193
________________ प्रजापतिके विभिन्न अंगोपांगसे विभिन्न जातिके मनुष्य-देव-आकाश-दिशा-पदार्थादि उत्पन्न हुए। यजुर्वेदके १७ वें अध्यायानुसार पुनः सृष्टि रचनाकी अभिलाषासे “मैं बहुत हो जाउँ”. ऐसा सोचते हुए सृष्टि रचना की। कुंभकार सदृश द्यावा-पृथ्वी-सर्जक विश्वकर्मा एक-अकेलाअसहायी, धर्माधर्म निमित्तसे अनित्य पंचभूत रूप उपादानसे सृष्टि रचते हैं। इनके आंखमुख-बाहु-पैर आदि सर्वतः है, अर्थात् सर्व दृश्यमान प्राणियों के चक्षु आदि उन्हीं उपाधिरूप परमेश्वरके ही है। अन्य सृष्टि रचनाके लिए भी अन्य कोई उपादान-निमित्त कारण नहीं हैं, लेकिन उर्णनाभि सदृश सृष्टि रचना करते हैं। इस तरह विश्व रचनाकी प्ररूपणाके साथ यह स्तम्भ पूर्ण किया गया है। अष्टम् स्तम्भ:-सप्तम स्तम्भमें वर्णित सृष्टि क्रमादिकी समीक्षा इस स्तम्भमें की गई है। इसकी समीक्षा करने के पूर्व ही ग्रन्थकारने स्पष्टतया अपने उदार और माध्यस्थ विचारोंको प्रस्तुत किया है। "किसी भी शास्त्रका प्रथम श्रवण-पठन-मनन-निदिध्यासनादि करके युक्ति प्रमाणसे बाधित प्ररूपणाका त्याग और युक्तियुक्तका स्वीकार करना चाहिए। मतोंका खंडन-मंडन देखकर कभी किन्हीं मतावलम्बियोंकी और द्वेषबुद्धि नहीं करनी चाहिए। क्योंकि सभी स्वयंका माना हुआ मत ही सच्चा मानते हैं।" तत्पश्चात सर्वमतोंकी जगत्कर्ता विषयक मान्यतामें विलक्षणता दर्शाते हुए ऋग्वेदानुसार जगत्कर्ताका विवेचन करते हैं। तदन्तर्गत मायाकी सत्-असत् अनिर्वाच्यता और ब्रहमका अद्वैत-द्वैत-निर्मलता-वितरागताका विश्लेषण करते हुए, वेदमें सूचित 'मकडीके जाले 'के दृष्टान्तको असिद्ध करके ब्रह्मकी सावयवता, नित्यता, द्वैतता, अज्ञान, अविवेक, निर्दयता, अवीतरागता, जडता, आत्मघातकता और मायाका अनादिपना सिद्ध करके किसीभी दर्शनमें कर्मके सर्वांगसंपूर्ण स्वरूप विवरणके अभावको प्रकाशित किया हैं। उपनिषदानुसार सृष्टि रचनासे लाभालाभ, प्रलापरूप प्रलय स्वरूप वर्णन, बिना शरीर सृष्टि रचनाकी असंभवित ईच्छा, सशरीरी ब्रह्मकी अद्वैतताकी, असिद्धि, ब्रह्मका नित्यानित्यत्व, रूपारूपित्व, “परमात्माके सामर्थ्य से सृष्टि रचना"-कथनमें इतरेतराश्रय दूषण, ऋग्वेद अ.८ अ.४की श्रुतिमें वर्णित सृष्टि क्रमकी अनेक युक्तियुक्त प्रमाणसे समीक्षा, बिना परमाणु भूमि सृजन-शरीरादि रचनाकी मिथ्या प्ररूपणा और गर्भजकी उत्पत्ति गर्भसे और निश्चित जीवों के जन्म निश्चित योनिसे ही होनेकी वैज्ञानिक एवं तार्किक प्रमाणसे सिद्धि, दृश्यमान सूर्य-चंद्रग्रह-नक्षत्र-तारादि ज्योतिष्क नामक देवों के निवास स्थान रूप विमान (जो प्रवाहसे अनादि अनंत कालीन है।) की प्ररूपणा, अनेक देवों, दिशा-आकाशादिकी उत्पत्तिकी मिथ्या कल्पनादि अनेक प्ररूपणाओंके आलेखनको समीक्षित करते हुए सत्यकी सिद्धि-मिथ्याकी असिद्धि करते हुए इस स्तम्भ को पूर्ण किया हैं। नवम स्तम्भ:-इस स्तम्भमें तपके प्रभावसे अथवा स्वदेहसे-पगसे पृथ्वी, पेट से आकाश और मस्तकसे स्वर्गरूप-सृष्टि सर्जन और पालन, ब्रह्माकी उत्पत्ति, दिशा और आकाशकी उत्पत्ति, मानस यज्ञसे देवों द्वारा वेदकी उत्पत्ति, विभिन्न विरोधाभासी स्थानसे इंद्र-चंद्र-सूर्य-अग्नि आदि 166 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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