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करते हुए इस स्तम्भको पूर्ण किया गया है। पंचस्त्रिंशति स्तंभः--शंकराचार्यका जीवनवृत्त--इस स्तम्भमें जैन-जैनेतरोंकी अनभिज्ञता दूर करने हेतु शंकराचार्य (शंकरस्वामी)की उत्पत्ति और जीवन वृत्तान्त उनके ही शिष्य अनंतानंदगिरि कृत एवं माधवाचार्य कृत 'शंकरविजय' नामक ग्रन्थों के आधार पर निरूपित किया गया है, जिसके अंतर्गत बिना पिताके बालक शंकरका उपहास जनक जन्म-उनकी असर्वज्ञता, सर्व शक्तिमानताका अभाव, कामुक विलासिताके कारण ही उर्ध्वरेताः से अधोरेताः होना, जैनमत खंडनकी कपोल कल्पितता एवं किसी जैनसे विवाद की हास्यास्पद प्ररूपणा आदिके प्रत्युत्तर देते हुए अभिनव गुप्त-भैरव-कापालिकका हत्यारा पद्मपादकी अज्ञानता और राग-द्वेष सिद्ध किये हैं। माध्वाचार्यजीके 'शंकरविजयमें' बौद्धोंके और आनंदगिरिजीके 'शंकरविजयमें' जैनों के कत्लके विसंवादी कथन-कुमारिल और शंकराचार्य विषयक, डो. हंटर कृत 'हिंदुस्तानका संक्षिप्त इतिहासके संदर्भसे और मणिलाल नभुभाईके 'सिद्धान्त सार' एवं 'प्राचीन गुजरातका एक चित्र' आदिके संदर्भ देकर असिद्ध प्रमाणित किया है। षद त्रिंशति स्तम्भः--प्रमाण-नय-स्याद्वाद स्वरूप--"प्रश्न द्वारा विधि और निषेधरूप भेदसे अनेक धर्मात्मक वस्तुमें एकएक धर्मकी अपेक्षा सर्व प्रमाणों से अबाधित और निर्दोष अनेकान्त द्योतक 'स्यात्' अव्ययसे लांछित सात प्रकारकी वाक्य रचना (उपन्यास)को 'सप्तभंगी' कहते हैं।"इस प्रकार सप्तभंगीकी व्याख्या पेश करके शंकराचार्यजीके सप्तंभगीके अयथार्थ खंडनको युक्ति युक्त प्रमाणों द्वारा निरासित किया गया है। अनंत धर्मात्मक, अनंत पदार्थ होने पर भी प्रत्येक पदार्थ के प्रत्येक धर्मके परिप्रश्नकालमें एक एक धर्ममें एक एक ही सप्तभंगी होती है। अतः अनंत धर्मकी विवक्षा विविध सप्तभंगियों की अनेक कल्पनाओंसे करना अभीष्ट है किंतु अनंतभंगीकी कल्पना अभीष्ट नहीं।
यहाँ 'स्यात्' सहित सप्तभंगीका स्वरूप; सकलादेश-विकलादेश (अर्थात् प्रमाण-नय) के स्वरूप; शंकराचार्यकी और व्यासजीकी-एकही परमब्रह्म पारमार्थिक सद्प-मान्यता, अविद्या वासना, मायाकी अनिर्वाच्यता आदि अनेक मान्यताओंका 'प्रमाणनयतत्त्वलोकालंकार' सूत्रानुसार खंडन करते हुए जैनमतमें आत्माका स्वरूप; कर्म-विज्ञान, स्याद्वादका सार, आत्माके तीन प्रकार, द्रव्यका स्वरूप लक्षण, षट् द्रव्यों के अस्तित्वका स्वरूप, द्रव्यों के स्वभाव (इन स्वभावोंको न माननेसे व्युत्पन्न अनेक प्रकार की असमंजसताका वर्णन) उनका विविध नय प्रकारोमें समन्वयनयका स्वरूप-लक्षण, नयकी अनेक परिभाषायें, नयाभासकी परिभाषायें, नयके प्रकार ('अनुयोग द्वार' वृत्यानुसार-जितने वचन उतने ही नय प्रकार आधारित नय स्वीकार्य-नयाभास नहीं); सुनय एवं दुर्नयके विशेष बोध हेतु 'सप्तशतार 'के 'नयचक्र' अध्ययन- 'द्वादशार नयचक्र' आदि न्याय विषयक ग्रन्थों के संदर्भ-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक (निश्चय-व्यवहार)नयके प्रमुख सात भेद, और उन्हींके आधारित २००, ४००, ५००, ६००, ७०० और उत्कृष्ट असंख्य भेदों की विवक्षा करते हुए स्याद्वाद न्यायाधीशके आधीन अनेक नयों के विवाद उपशमनको
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