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किया गया है। इनमें से छठा प्रकार-तीन थुईसे देववंदनका है, जो चैत्य परिपाटी या मृतक साधुके विसर्जन पश्चात् साधुको चैत्यगृहमें परिहार्यमान तीन थुईसे चैत्यवंदना करने का विधान बृहत्कल्पकी सामान्य चूर्णि और विशेष चूर्णि, कल्प बृहत्भाष्य, आवश्यक वृत्ति आदिके अनुसार किया गया है, लेकिन प्रतिक्रमणके आद्यंतमें चैत्यवंदना करते समय तीन थुई का किसी भी शास्त्रमें निरूपण नहीं हुआ है।
तदनंतर देवदेवियों की प्रसन्नताके लिए अव्रती या विशिष्ट व्रतधारी, श्रावकादि योग्य आराध्य विविध तप-रोहिणी, अंबा, श्रुतदेवता, सर्वांगसुंदर, निरुजशिखा, परमभूषण, सौभाग्य कल्पवृक्षादि तप-अव्युत्पन्न बुद्धिवाले जीवों के लिए अभ्यास रूप हित, पथ्य, सुखदायी होनेसे वांछासहित या वांछारहित करनेसे उपचारसे मोक्षमार्गकी प्रतिपत्ति हेतु करने की प्रेरणा 'वंदित्ता सूत्र' आधारित दी गई है।
पंचांगीको ही मान्य और प्रकरणादिको अमान्य करनेवाले श्री रत्नविजयजीको, 'स्थानांग वृत्ति'में प्ररूपित श्रुतज्ञान प्राप्तिके सात अंगोंमें समाविष्ट- परंपरा और अनुभव'-की प्ररूपणा दर्शाते हुए एवं प्रतिष्ठा-कल्प, दीक्षा-प्रदान-व्रतारोपणविधि अथवा 'चातुर्मासिक-सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि करते समय देवों के काउसग्ग और थुईसे स्तुति करना' मान्य, लेकिन नित्य प्रतिक्रमणमें ही उसके विरोधको स्पष्ट करते हुए---स्वयंकी मानी मान्यतामें बाधक प्ररूपणाओंको अमान्य करनेवाले असमंजस प्रलापक, अपनी पट्टावलीमें तपगच्छ प्रवर्तक महातपा श्री जगच्चंद्र सूरि, विजयदेव सूरि, विजयप्रभ सूरि आदिकी परंपरा लिखने के बावजूद भी स्वयंको तपागच्छके नहीं लेकिन सर्वसे भिन्न-ऐसे नूतन ही 'सुधर्मगच्छ 'के कहलानेवाले (गुरु रूपमें मान्य करके उन आचार्यों की समाचारी न माननेवाले) स्वच्छंद प्रलापक, चतुर्विध संघ, पूर्वांकित जैनाचायों
और जैनशास्त्रों के विरोधी (उन्हें असत्यभाषी मानने से), तुच्छ बुद्धि एवं अहंकारयुक्त, उत्सूत्र प्ररूपक श्री रत्न विजयजी एवं श्री धन विजयजीको परम हितस्वी ग्रन्थकार आचार्यप्रवर श्री आत्मानंदजी म.सा. परोपकारार्थ पृ. १२० पर लिखते हैं. “थोडी सी जिंदगीवास्ते वृथा अभिमानपूर्ण होके, निःप्रयोजन तीन थुईका कदाग्रह पकड़के श्री संघमें छेद-भेद करके काहेको महामोहनीय कर्मका उत्कृष्ट बंध बांधना चाहिए ?" - ग्रन्थकी समाप्ति करते हुए भी आशीर्वाद रूप लिखते हैं कि - “इस वास्ते रत्नविजयजी अरु धन विजयजी जेकर जैन शैली पाकर अपना आत्मोद्धार करनेके लिए जिज्ञासा रखनेवाले होवेगे तो मेरेको हितेच्छु जानकर, और क्वचित् कटुक शब्दके लेख देखके, उनके पर हितबुद्धिवाले किंवा जेकर बहुत मानके अधीन रहा होवे तो मेरेको माफी बक्षिस करके मित्र भावसे इस पूर्वोक्त लेखको वांचकर शिष्ट पुरुषोंकी चाल चलकर धर्मरूप वृक्षको उन्मूलन करनेवाला ऐसा तीन थुइयोंका कदाग्रह छोड़के किसी संयमी गुरुके पास चारित्र-उपसंपत् लेकर-शुद्ध प्ररूपक होकर, इस भारत खंडकी भूमिको पावन करेंगे तो इन दोनोंका शीघ्र ही कल्याण हो जावेगा, हमारा आशीर्वाद है।"
इसीके साथ पृ. १२१ पर उनके श्रावकोंकोभी-जिसे आत्म कल्याणकी वांछना है उन्हेंहितशिक्षा देते हुए, परभवमें उत्तम गति-कुल और बोधिबीजकी सामग्री प्राप्त करने हेतु मृगपाश
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