Book Title: Satya Dipak ki Jwalant Jyot
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 213
________________ स्वरूप-धर्माचरणका फल-पूर्वकालमें जिनोपदेश रूप श्रुतज्ञान कंठाग्र रखने के आग्रहका कारण(ग्रन्थालेखनके सर्वथा निषेधका इन्कार)-सर्वप्रथम श्रुतज्ञान ग्रन्थस्थ करने की परंपराके प्रारम्भकसमय, स्थान, कारण, विधि, व्यक्ति आदिके विधान---भ.महावीर के ३९ राजवी भक्तों के नामस्थान निर्देश---'निर्वाण समय भस्मग्रहके प्रभावसे', 'होनहार भवितव्यता'की सिद्धि और 'ईश्वरेच्छा बलियसि'की असिद्धि-निर्वाणकी परिभाषा और स्वरूप अंतर्गत जीवकी गति-स्थिति-अवस्थामोक्षके प्रारम्भ-पर्यवसानके कालका स्वरूप, आत्माका अविनाशीत्व-अमरत्व आदि। इसके अतिरिक्त अन्य ऐतिहासिक, आगमिक एवं सैद्धान्तिक प्रश्नोत्तरके अंतर्गत भगवान श्री ऋषभदेवसे भ.महावीर पर्यंतकी पट्ट परंपराकी ऐतिहासिक सिद्धि---भ.पार्श्वनाथकी पट परंपराकी पटावली और वर्तमानमें उनके उपके शीय गच्छकी अविच्छिन्न परंपराके प्रभाविक आचार्यों-साधु आदिके विचरणसे भ.महावीरके पूर्वकालमें भी जैनधर्मके अस्तित्वकी सिद्धिप्राचीन शिलालेखों एवं अनेक बौद्ध-शास्त्रोंसे तथा नूतन संशोधनाधारित जैनधर्मकी बौद्ध एवं ब्राह्मण धर्मादिसे प्राचीनता और स्वतंत्रता---दिगम्बर देवसेनाचार्यजीके 'दर्शनसार' ग्रन्थाधारित बुद्धकी उत्पत्ति, मांस लोलुपता, मांसाहार और मांससे ही मृत्यकी प्ररूपणा; बौद्धों के ग्रन्थों से ही बुद्धका चरित्र वर्णन और उनकी असर्वज्ञताकी सिद्धि-जैनमतसे बौद्धों के धर्म स्वरूप-शास्त्रादिकी अधिकताका निषेध-श्वेताम्बरों और दिगम्बरों की पूर्वापरताकी, आचार्य परंपरा आदि ऐतिहासिक ग्रन्थ रचनायें, पाश्चात्य विद्वानों के संशोधन, मथुराके प्राचीन शिलालेख, प्राचीन स्तंभादिके लेख, दैनिक पत्र-पत्रिकाके लेखादिसे सिद्धि---भगवंतकी देशनानुसार द्रव्य और भावसे प्रभु प्रतिमा-पूजनका स्वरूप-लाभ-कारण-सर्व देवोमें धार्मिकताका स्वरूप-समकित देवकी स्तुति और शासनोनति आदि विशेष कारणोंमे श्रावक या साधु द्वारा आराधनाके निषेध का इन्कार-द्रव्य हिंसाका स्वरूप वर्णन, कूपके दृष्टान्तसे---आत्माका उपादान कारण ईश्वर एवं आत्मा और ईश्वरमें अद्वैतपनेका खंडन-कर्मफल प्रदाता और जगत्कर्ता ईश्वर प्ररूपणाका इन्कार और इन्कारके कारण,-पांच निमित्तरूप उपादान कारण ही सृष्टि-सर्जक और उनसे ही सृष्टि संचालनइस विधानकी, बीजसेवृक्ष, और जीवका गर्भमें अवतरण आदि रूप कार्यकलापों द्वारा स्पष्टताकर्म द्वारा ही विश्व रचनाकी सिद्धि-पुनर्जन्म, तीर्थंकरों की भक्तिका कारण और प्रभाव-शुभाशुभ कर्मोदयमें देवोंका निमित्त रूप बननेकी शक्यता-जीवकी अनंत शक्तिकी कर्म रहितताके कारण अद्भूत, चमत्कारिक कार्य निष्पन्नता, कर्मकी १५८ उत्तर-प्रकृतियों का स्वरूप-और आठ मूल प्रकृतियों के कर्म-बंधका स्वरूप, कर्मबंधके कारण-कर्म निर्जराका स्वरूप आदि सर्वज्ञ प्ररूपित संक्षिप्त कर्म स्वरूप---२८ लब्धिका स्वरूप-उपयोग-प्राप्तिका स्वरूप---तीर्थंकरों की लब्धियाँ-गणधर गौतमकी लब्धियों का वर्णन---भ.महावीर और उनकी प्रतिमाकी मान्यताका कारण और स्वरूप एवं अन्य सरागी देवोंका स्वरूप---जैनों के ग्रन्थों की सुरक्षा हेतु ज्ञान भंडारों की गुप्तता, लेकिन अध्ययन हेतु सर्व के लिए उदारता एवं स्वतंत्रता-जैनों के नाक एवं जिह्वा-(इज्जत और खान पान)में धन व्यय पर आक्रोश-सात क्षेत्रो में से आवश्यकतावाले क्षेत्रमें धन व्ययकी जिनाज्ञा (186) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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