Book Title: Satya Dipak ki Jwalant Jyot
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 218
________________ के लिए है । उसका मांस उसके जीव (लहु) के साथ मत खाना-"ऐसा ईश्वर द्वारा मांसाहारका आदेश और स्वयं भी बछडे आदिका मांसाहार करना-(ईश्वर की क्रूरता और जिह्वा लोलुपता)समस्त पृथ्वी पर एक ही बोलीको छिन्नभिन्न करना, बडे पयगम्बर अब्राहमकी पत्नीको स्वयंका जीव बचाने के लिए मृषा बोलने की प्रेरणा करना--(माया मृषावादीपना)-मिश्रवासीका गुप्त रूपसे खून करके जमीनमें गाडना--(खूनी होना), इसरायलियों को बचाने के लिए बड़े मेम्नेका वध करवाके खूनके छापे मरवाना, मिश्रवासियों की कत्ल और उसी इसरायलियों को मरीका उपद्रव करके १७००० मनुष्यों को मार डालना-पापके प्रायश्चित्तके लिए गाय-बैल बछडा-बकरा आदिके बलिदान देकर मांस चढानेका विधान-आदि अनेक उटपटांग, निर्दयी, मृषावादी, हिंसक प्ररूपणा करनेवाले ईश्वर-ईश्वरपुत्र-पयगम्बर-मूसा आदिके चरित्र वर्णनोंसे ईसाइ धर्मकी अधर्मताका पर्दाफास किया है। और भव्य जीवों के उपकारार्थ सुदेव-गुरु-धर्मके गुणोंका वर्णन-हिंसासे बचने के लिए आवश्यक, जीवों के स्वरूपकी जानकारी देते हुए जीवों के भेदोंका निरूपण, जीवोंकी शरीर रचना, सुख-दुःखादि अनुभव आदिके हेतुभूत निमित्त-कर्मों का स्वरूप-कर्मके प्रकार-बंध, निर्जरा आदिके हेतु-विपाक आदि संपूर्ण फिरभी संक्षिप्त कर्मविज्ञान-चौदह पूर्वादि शास्त्र-रचनाका स्वरूप, सूर्य-चंद्रादिकी प्ररूपणासे खगोल और पृथ्वी याने द्वीप-समुद्रादिके विवरणसे भूगोलके विषयों का स्पष्टीकरण-आदि अनेक उपयोगी निरूपणों के साथ इस छोटेसे ग्रन्थकी समाप्ति की गई है। निष्कर्ष--दिखने में छोटे और माहात्म्यमें बड़े इस समीक्षात्मक ग्रन्थमें ईसाइयोंकी तौरेत-इंजिलजबूरादिकी आयातों के उद्धरण देकर उनकी समीक्षा करते हुए सत्य और शुद्ध धर्मावलम्बनसे आत्म कल्याणकी अपील करके जैनधर्मावलम्बी इतिहास, भूगोल, खगोल, कर्म विज्ञानादिकी भी प्ररूपणा की है। -: जैनधर्मका स्वरूप :ग्रन्थ परिचय--जैनधर्मका स्वरूप अर्थात् उनके सिद्धान्त शास्त्रों का अवगाहन-जो सिद्धान्त आसमान जैसे विशाल और समुद्र जैसे गंभीर है, जो अगणित (क्रोडों) ग्रन्थोमें समाविष्ट किया गया है, उन अगाध श्रुतवारिधिका आचमन करने के लिए समर्थ तत्कालीन अगत्स्यके अवतार तुल्य अधिगततत्त्व, शास्त्र पारगामी श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजी म.सा.ने सर्वसाधारण जैन और जैनेतर सभीके लिए समान उपयोगी एवं विशेषतःचिकागो ‘धर्म समाजकी' प्रार्थना व प्रेरणासे आकाशको अणुमें समाविष्ट करने सदृश इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थकी रचना सं.१९५० अषाढ शु.१३को सम्पन्न की, जिसे सं.१९६२ में श्री जसवंतराय जैन-लाहोर द्वारा प्रकाशित किया गया। विषय निरूपण-आधुनिक अल्पज्ञ प्रत्युत धर्म जिज्ञासु महानुभावों की संतुष्टि के लिए जैन धर्मके यत्र-तत्र निरूपित अनेक शास्त्रोंमें की गई भिन्नभिन्न प्ररूपणाओमें निहित महत्त्वपूर्ण धर्म सिद्धान्तो तत्त्व पदार्थों को सर्वांग संपूर्ण ज्ञान एक ही ग्रन्थमें अति संक्षिप्त रूपमें आलेखित करने का प्रयत्न किया गया है, जिसके अंतर्गत निम्नांकित विषयों का जिक्र किया गया है-यथा-कालचक्र (191) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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