Book Title: Satya Dipak ki Jwalant Jyot
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

Previous | Next

Page 223
________________ FHHHHHHHHHHHHHI एवं मंझे हुए अनुभवी धर्म नेतृत्वको; मेघ-सी गंभीर-गर्जीत-सुरीली वाणी, देव सदृश अनुपम काया, सिद्धहस्त लेखन, उत्कृष्ट-कुशाग्र कवित्व, संगीतज्ञता, चित्रकलात्मकता, विद्यामंत्रधारक सिद्धियाँ, श्री जिनेश्वर देव एवं जिनशासनके प्रति संपूर्ण समर्पण भावादि गुणोंने उनके समग्र जीवनको अप्रतीम एवं अनूठे साजोंकी सजावट प्रदान करके सुशोभित किया है । श्री आत्मानंदजीम.सा.आचार्यत्वकी अष्ट संपदके स्वामी, षष्ठ-त्रिशति गुणधामी; समाजमें व्याप्त अज्ञानयुक्त संकीर्णताके कारण प्रचलित कुरूढ़ियाँ, कुरिवाज, कुरीतियोंका बिछौना गोल करनेवाले और शिक्षा प्रचार द्वारा सामाजिक नवचेतनाको संचारितकर्ता एक जनरेटर तुल्य, अनेक भव्यजीवोंके प्रेरणा स्रोतके रूपमें अपनी अमर कहानी छोड़ गये हैं । आपके कर-कमलोंसे वपन किया और समस्त जीवनामृतसे अभिसिंचित संविज्ञ शाखीय जैनधर्मका उपवन लहलहाते दुमदलोंसे सुशोभित रहेगा, जिसके तरोताज़ा-मिष्ट फल जैन समाजको दीर्घकाल पर्यंत सदैव प्राप्त होते रहेंगें ।। जीवनाकाशका विहंगावलोकन :--- ऐसे परमोपकारी, शेर-ए-पंजाब, पंजाब देशोद्धारक श्री आत्मानंदजीम.के जीवनाकाशके तारक मंडल-से वैविध्यपूर्ण प्रसंगोंके विहंगावलोकनके समय हमारे नयनपथको प्रकाशित करता है अनेक गुण-रश्मियोंका आलोक, जिनमेंसे यत्किंचित्का आह्लाद अनुभूत करें । प्रतिदिन तीनसौ श्लोक हृदयस्थकर्वी तीव्रयाददास्त; यथावसर-यथोचित प्रत्युत्तर द्वारा आगंतुक जिज्ञासुओंको परिपूर्ण संतुष्ट करनेवाली प्रत्युत्त्पन्नमतियुक्त तीक्ष्ण मेधा; शंकरके तृतीय नेत्र-सा व्यवहार करनेवाले पूज्यजी अमरसिंहजीकी रास्तेमें भेंट होने पर प्रेमपूर्वक विधिवत् वंदना करनेवाले और एक श्वासोच्छ्वासकी क्रियाके अतिरिक्त प्रत्येक कार्योंमें गुर्वाज्ञाको ही प्रमाण वा आधार-के प्रतिपादकके रूपमें प्रकाशित है उनका विनय-गुरु-भक्ति आदि; बचपनमें धाड़पाडुओंसे घरकी रक्षा करनेवाले 'दित्ता' द्वारा आजीवन केवल सत्यके सहारे ही समस्त स्थानकवासी समाजसे विरोध मोलकर और मूर्तिपूजा विरोधी-धर्मलूटेरोंसे एक-अकेले द्वारा जिनशासनकी रक्षा करनेमें उनकी साहसिकता-वीरता-नीडरताका विज्ञापन दृग्गोचर होता है । आराधना-साधना, ज्ञान-ध्यान, समाजकल्याण या शासनकी आन और शान, गुरुभक्ति या शिष्योंके आत्मिक सुधार-शिक्षणादि जीवनके प्रत्येक मोड़-प्रत्येक कदम-प्रत्येक पलको अनुशासन बद्ध बनाने हेतु सविशेष सतर्कता बरतनेवाले अनुशासन प्रिय श्री आत्मानंदजीम.द्वारा भारतवर्षके समस्त जैनसंघों द्वारा यतियोंके वर्चस्व भंग और जिनशासनकी प्रभावनाके प्रयोजनसे प्रदान किये गये 'आचार्यपद'काभी केवल श्री संघके आदार-सम्मान और स्वकर्तव्यके भाव रूपमें स्वीकार-आचार्य प्रवरश्रीकी निस्पृहता, निरभिमान और कर्तव्यनिष्ठाका परिचायक है। साहित्य सेवार्थ ज्ञानभंड़ारोंके जीर्णोद्धार, ग्रन्थोंकी प्रतिलिपि करवानेकी और व्यवस्था करवानेकी प्रेरणा देनेवाले दीर्घदर्शी, युगप्रधान आचार्य प्रवरश्री द्वारा चिरकाल पर्यंत स्थायी प्रभाव छोड़ जानेवाले विशाल साहित्य सृजनमेंकथिरसे कंचन-जैसे परमार्थोंकी उद्घाटक नवोन्मेषशालीनी बुद्धि प्रतिभाके दर्शन होते हैं। तो 'तत्त्व निर्णय प्रासाद' या 'जैन तत्त्वादर्श' जैसी रचनाओमें हमें उनकी बहुश्रुतता-सर्वदर्शन शास्त्रज्ञताकी अभिज्ञता प्राप्त होती है। तटस्थ विचारक पं. श्री सुखलालजीके शब्दोमें "महोपाध्यायजी श्री यशोविजयजीम.के पश्चात् प्रथम बहुश्रुतज्ञानी विद्वान श्री आत्मानंदजीम.सा.थे ।" तत्कालीन साधु संस्थामें सामाजिक सुधारकके रूपमें अनेक सामाजिक समस्याओं पर ध्यान परिलक्षित करके समाजोनतिके अनेक कार्य सम्पन्न करवानेवाले समर्थक्रान्तिकारी पौरुषत्वधारी आचार्य प्रवरश्रीने श्रीजिनशासनकी उन्नति और जैनधर्म प्रचार-प्रसारके महदुद्देश्यसे श्री वीरचंदजी गांधीको चिकागो-अमरिका भेजकर विश्व धर्ममंच पर जैनधर्मकी बोलबाला करवानेवाले समयज्ञ संतपुरुषका नाम इतिहासमें स्वर्णाक्षरोंसे अंकित है । अंबालाके श्री जिनमंदिर प्रतिष्ठावसरकी चिंताजन्य (घनेबादल घिरनेवाली) परिस्थितिमें मुस्लिम युवानोंकी इबादत-"या खुदा महरे कर, यह काम बाबा आत्मारामका है-जिसने हिंदु-मुस्लिम सबको एक निगाहसे देखा है"- उनकी अनूठी लोकप्रियताकी निशानी है । अहमदाबादसे विहारके समय विलंबसे आनेवाले नगरशेठ या बड़ौदासे विहार करनेके निर्णय पश्चात् कलकत्ताके रईस बाबू बद्रीदासकी विनतीकी परवाह न करके अपने ही निर्धारमें निश्चल रहनेकी प्रवृत्ति उनकी समयकी पाबंदी और स्वतंत्र-अड़ग निश्चय शक्तिको प्रस्तुत करती है । (196) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248