Book Title: Satya Dipak ki Jwalant Jyot
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 212
________________ मंगलाचरण करते हुए ग्रन्थका पर्यवसान किया गया है। -: जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर :ग्रन्थ परिचय--इस ग्रन्थमें ग्रन्थकारने अपनी मौलिकताका परिचय देते हुए जैनधर्मके विभिन्न विषयक स्वरूपोंको प्रश्नोत्तर रूपमें प्रस्तुत किये हैं, जो आधुनिक शिक्षितो-जैन जैनेतर जिज्ञासुओंको संतुष्टि प्रदान करने में सक्षम है। इस पेशकशकी प्रमुख विशिष्टता है-"अभिप्सित तथ्यों को भ.महावीरके जीवनप्रसंगों के साथ समरूप करके स्पष्ट रूपसे समझाना" यथा-(१) 'भ. महावीरका ब्राह्मण कुलमें अवतरण' इस प्रसंगसे जैन कर्मविज्ञानके अटल सिद्धान्त-जीव कर्मका कर्ता और भोक्ता स्वयं है---दर्शाया है। अर्थात् मरिचिके भवमें उपार्जित 'नीचगोत्र' कर्म चरम भवमें भी भुगतना पडा। कर्मका फल सर्व जीवो के लिए समान होता है, निदान परमेश्वरको भी उसके विपाकोदयको सहना पड़ता है। यही कारण है कि भ.महावीरको देवानंदाकी कुक्षिमें ८२ दिन तक रहना पड़ा। (२) गर्भहरण, छाद्मस्थिक कालमें परिषह और उपसर्गोको धैर्यता से सहना, निर्वाण समय शकेन्द्रकी 'एक पल आयुष्य वृद्धि' की प्रार्थनाका प्रत्युत्तर--आदि प्रसंगोसे अन्य दर्शनकारों की सर्वशक्तिमान ईश्वरकी' मान्यता पर कुठाराघात होकर प्रतिपादित होता है-- 'कर्मबद्ध जीव सर्व शक्तिसंपन्न नहीं हो सकता और सर्व कर्ममुक्त जीवोंको स्वयंकी शक्ति-प्रदर्शनकी आवश्यकता नहीं होती। अगर ऐसा होता तो इतने परिषह-उपसर्ग शक्ति होने पर भी क्यों सहते? अथवा देवलोकसे सीधे ही उच्च कुलमें अवतरित होनेके प्रत्युत नीच कुलमें क्यों जाते? क्योंकि बद्धकर्म भुगतानके लिए 'विहायोगति नामकर्म' उन्हें खिंचकर वहाँ ले गया!- ऐसे अनेक प्रसंग इन प्रश्नोत्तरोंमें निहित हैं। विषय निरूपण---कुल १६३ प्रश्नोंत्तर में निम्नांकित विषयों को समाविष्ट किया गया है।-यथाजिनेश्वरका स्वरूप, योग्यता, गुण, कर्तव्य, जन्म, माता, पिता, कुल, गोत्र, विचरण क्षेत्रान्तर्गत जैन भूगोल-इतिहासादिकी मान्यतायें-भ. महावीरके जीवन प्रसंग---च्यवन, गर्भहरण, जन्म स्थान, समय, माता, पिता, परिवार, दीक्षा वर्णन, सार्ध बारह वर्ष के छाद्यस्थिक आराधना कालके बाईस परिषह और त्रिविध उपसगाँका वर्णन, चरम सीमान्त सहनशीलताका परिचय, सर्वघातीकर्म क्षय होनेसे केवलज्ञान, केवलज्ञान महोत्सव, प्रथम देशना निष्फल, अनंतर देशनामें चतुर्विध संघकी स्थापना, चतुर्विध संघ परिवार, दीक्षा पर्यायके बयालीश चातुर्मास, बहत्तर वर्षायु पश्चात् निर्वाण, दिवाली पर्व प्रारम्भ, अंतिम उपदेशादि प्रसंगों को लेकर अनेकविध विषयों की प्ररूपणा ग्रन्थकारने की है जैसे सर्व तीर्थंकरोंके कर्मोदय एवं कर्म-निर्जराका स्वरूप और भगवानके भोगी और त्यागीपनेका कारण-सार्ध बारह वर्षकी उग्रातिउग्र घोर तपश्चर्या का वर्णन-ज्ञानके भेदोपभेदका स्वरूप-बारह पर्षदाका वर्णन-इन्द्रभूति आदि महामिथ्याभिमानी ग्यारह महापंडित याज्ञिक ब्राह्मणोंकी शंकाओंका समाधान-गणधर पदप्रदान-त्रिपदीसे द्वादशांगीकी रचनान्तर्गत द्वादशांगी, चौदहपूर्व, पंचांगी रूप पैंतालीस आगमोंके परिचयात्मक यंत्र-चतुर्विध संघ, साधु और श्रावक योग्य धर्म एवं सम्यक्त्वका (185) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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