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श्री धर्मघोष सूरिजी कृत संघाचार वृत्ति, कुलमंडन सूरि कृत विचारामृत संग्रह, श्री जयसिंह सूरिजी एवं उपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत प्रतिक्रमण हेतु गर्भित विधि, संघाचार, लघुभाष्य वृत्ति, आवश्यक कायोत्सर्ग नियुक्ति, वंदनक चूर्णि जीवानुशासन प्रकरण, पाक्षिकसूत्र, आराधना पताका, श्री नमिमुनि कृत षड़ावश्यक विधि, श्री तरुणप्रभ सूरि कृत षडावश्यक बालावबोध, श्री अभयदे व सूरिजी कृत पंचाशक टीका आदि ग्रन्थ रचनायें और बप्पभ टी-शोभनमुनि आदि अनेक विद्वद्वों द्वारा रचित स्तुति चौबीसीओं के संदर्भ देकर, तीन थुई आदि विधानों को असिद्ध प्रमाणित किया है।
इसके अतिरिक्त इन देवी-देवताओंकी स्तुतिके कारणों की चर्चा करते हुए आपने फरमाया है कि, “वैयावच्चगराणं, संतिगराणं, सम्मदिट्ठि समाहिगराणं, करेमि काउसगं"-अर्थात् जिनशासनके परिस्थापनादि कार्य, जिनमंदिर रक्षा, प्रवचन-शासन-उन्नति आदि रूप वैयावृत्यके लिए; जिनभवन पर या चतुर्विघ संघ पर होनहार प्रत्यनीकों के उपसर्गादि निवारण, विघ्नशमन, क्षुद्रोपद्रवके शमनादि रूप शांतिकार्यके लिए; श्री संघमें सम्यग् दृष्टि देवों द्वारा द्रव्य और भाव समाधि एवं बोधि-सम्यक्त्व प्राप्ति तथा शुभ सिद्धिमें सहायताके लिए प्रमादाधीन देवादिको जागृत करने के लिए और जागृतको उन कार्यों में स्थिरत्वके लिए उन देवोंकी उपबृंहणा पूर्वक साधर्मिक वात्सल्य रूप काउसग्ग-जो परंपरासे मोक्षमार्गमें स्थिरीकरण और अंततोगत्वा मोक्ष प्राप्तिके हेतु रूप-करणीय हैं; लेकिन, वे देवादि अविरति होने के कारण उनके वंदन-पूजन या सत्कारादिके लिए नहीं करना चाहिए।
सामान्यतः परम्परागत चैत्यवंदनामें चारथुई और उत्कृष्ट चैत्यवंदनामें पांच शक्रस्त्व और आठ थुई कहनेका आदेश पूर्वाचार्यों द्वारा दिया गया है। आचरणाकी परंपरा भी वैसी ही चली आ रही है। सिद्धसेन दिवाकरजी कृत "प्रवचन सारोद्धार" वृत्यानुसार चतुर्थ थुई. गणधर वाणी अनुसार, गीतार्थों के आचरणा आदेशके कारण सर्व मोक्षार्थी जीवों द्वारा आचरणीय है। लेकिन कोई कोई आचार्यके मतसे 'चतुर्थ थुई 'को अर्वाचीन माना है। अब यहाँ अर्वाचीनका अर्थ “आचरणा द्वारा कराता हुआ"-अर्थात् श्रुतरत्नाकरके विरहमें (सांप्रतकालमें बिन्दु तुल्य ही श्रुतज्ञान रह जाने पर) सर्वश्रुतज्ञानको, सूत्राधारित नहीं जाना जाता है। अतः बहुश्रुत पूर्वाचायाँके आचरणानुसार परंपरागत परवर्तियोंका आचरण-वही आचरणा अथवा जो आचरण त्रिकालाबाधित रूपसे विद्यमान हों, वह आचरण ही जीत आचार कहा जाता है। अतएव अज्ञातमूल पूर्वाचार्योंकी परंपरासे अहिंसक और शुभध्यान जनक रूपमें प्राप्त आचरणा सर्व मान्य होती है। श्री हरिभद्र सुरीश्वरजी कृत 'ललित विस्तरा में चतुर्थ थुईको मान्यता दी है, तो कुलमंडन सूरिजीकृत 'विचारामृत संग्रह में 'अर्वाचीन' शब्दका ‘परंपरागत आचरणा' करना ही उपयुक्त माना है। अतः अर्वाचीन, आचरणा, जीत आचार-आदि सभी समानार्थी माने गये हैं।
श्री हरिभद्र सुरीश्वरजी म.ने ‘पंचाशक 'में तीन प्रकारसे चैत्यवंदनाकी प्ररूपणा की है। उन्हें ही जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदोंसे “बृहत्कल्प महाभाष्य"में नव प्रकारसे निरूपित
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