Book Title: Satya Dipak ki Jwalant Jyot
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 207
________________ उनका राज्यकालादि तवारिखके रूपमें प्रस्तुत करती है। निष्कर्ष--अंतमें इतना ही उल्लेख करना पर्याप्त होगा कि, यह चित्रमय ऐतिहासिक-तवारिख युक्त-सुंदर कलाकृति “जैनमतवृक्ष" अपने ढंगकी अनूठी, अभूतपूर्व, अद्भूत ठोस विषयगत ल्पना कृति है; जिसे श्री आत्मानंदजी म.ने सर्वप्रथम प्रस्तुत करके ऐसे वंश वृक्षों की असाधारण ऐतिहासिक परंपरा प्रारम्भ की है। चतुर्थ स्तुति निर्णय भाग १-२ ग्रन्थ परिचय--इस हूंडा अवसर्पिणी कालमें भस्मग्रहादि अनिष्ट निमित्तोंके कारण, बहुलकर्मी-निबिड़, अशुभ मिथ्यात्व मोहनीय कर्मोदयवान् जीव स्वच्छंदतासे, असत्य प्रपंचोंको सत्य करने के लिए अथवा ईर्ष्या या बड़प्पन प्रदर्शन हेतु, अपने आपको परलोकके भयसे निर्भय माननेवाले-मिथ्या प्ररूपणायें करके स्व और परका अकल्याण करते हैं। उनको सद्बुद्धि-प्रदान हेतु परमोपकारी श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजी म.ने मानो प्रण ले रखा हों, इस कदर अनेक मिथ्या कुतर्क वादियोंको शिक्षा प्रदाता अनेक ग्रन्थों की रचना की है। तदन्तर्गत 'चतुर्थ स्तुति निर्णय की रचना श्रीरत्नविजयजीम. एवं श्री धनविजयजी म.को हितशिक्षाके लिए हुई है। विषय वस्तुका निरूपण-साधकको प्रतिदिन सात बार चैत्यवंदना करनेका विधान श्री नेमिचंद्र सूरिजी कृत 'प्रवचन सारोद्धार में किया गया है। तदनुसार (१) रात्रि समय सोनेसे पूर्व (२) सुबह जागनेके पश्चात् (३-४) दोनों संध्यासमय प्रतिक्रमणमें (५) भोजनपूर्व (६) भोजन पश्चात् (७) श्री जिनमंदिरमें दर्शन करते समय याने भाव पूजा रूप। इसके अतिरिक्त विशिष्ट प्रसंग प्रतिष्ठाकल्प, दीक्षाप्रदान, व्रतारोपण, चैत्यपरिपाटी आदिमें भी चैत्यवंदना करनेका विधान किया गया है। इस ग्रन्थकी प्ररूपणाका विषय है (१) नित्य दोनों संध्याके प्रतिक्रमणमें आद्यंतमें चैत्यवंदना करनी चाहिए या नहीं? (२) चैत्यवंदनामें (देव-देवीकी) चतुर्थ स्तुति बोलनी चाहिए कि नहीं? (३) प्रतिक्रमणमें श्रुतदेवता-क्षेत्रदेवता-भुवनदेवतादिकी; और प्रतिष्ठा, व्रतारोपण, दीक्षा-पदवी प्रदानादि समय प्रवचनदेवी, शांतिदेवी, शासन रक्षक देव-देवी आदिके कायोत्सर्ग और थुईसे स्तवना करनी चाहिए कि नहीं?-ये सभी शंकाये श्री रत्नविजयजी म. द्वारा विशेषतया बृहत्कल्प, व्यवहारसूत्र, आवश्यकसूत्र, पंचाशक वृत्ति आदिके कुछ संदर्भ देकर की गई है। जिनके प्रत्युत्तरमें ग्रन्थकारने स्थानांग, सूत्रकृतांग, अनुयोगद्वार-वृत्ति, निशीथचूर्णि, आवश्कसूत्र-चूर्णि-नियुक्ति आदि अनेक आगम शास्त्र एवं श्री नेमिचंद्र सूरि कृत प्रवचन सारोद्धार और उत्तराध्ययन वृत्ति; श्री वादिदेवसूरि कृत और श्री भावदेव सूरि कृत “यतिदिनचर्या"; श्री मानविजय उपाध्यायजी कृत धर्मसंग्रह (चैत्यवंदनाके भेद); वंदारुवृत्ति (श्रावकके आवश्यककी टीका); श्राद्धविधि; आवश्यकसूत्रकी अर्थदीपिका; श्री तिलकाचार्य कृत एवं श्री जिनप्रभसूरिजी कृत 'विधिप्रपा' (प्रतिक्रमण विधि) श्री हरिभद्र सूरि कृत पंचवस्तु: खरतर बृहत्समाचारी; तपगच्छीय श्री सोमसुंदरसूरि, श्री जिनवल्लभसूरि, श्री देवसुंदर सूरि, श्री नरेश्वर सूरि, श्री तिलकाचार्य आदि पूर्वाचार्यों की रचित समाचारियाँ, श्री शांतिसूरिजी कृत श्री संघाचार चैत्यवंदना, देवेन्द्रसूरि कृत चैत्यवंदना लघुभाष्य; वादिदेव सूरि कृत 'ललित विस्तरा पंजिका'; श्री हेमचंद्राचार्यजी कृत योगशास्त्र; (180) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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