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पाहा
इंगित करते हुए इस स्तम्भको पूर्ण किया गया है। उपसंहारः--'तत्त्व निर्णय प्रासाद' ग्रन्थरूपी महलको विविध ३६ स्तम्भोंसे सुशोभित करते हुए ग्रन्थकारने उसकी सजावट रूप सत्य धर्मका निश्चय और निश्चित धर्मके स्वीकार; जैन धर्मकी प्राचीनता-अर्वाचीनता और शाश्वतता; 'श्रीमहादेव स्तोत्रा'धारित त्रिमूर्तिका अर्हन्में तथा दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय रूपमें स्थापन; "अयोगव्यवच्छेदा"धारित वीतराग ही सत्य उपदेष्टा और नयवाद-स्याद्वाद ही यथार्थ पदार्थ स्वरूप कथनके लिए शक्तिवान्; जैनाचार्यों की माध्यस्थता पूर्वक रत्नत्रयादि गुणधारीको वंदना, 'लोकतत्त्वनिर्णयानुसार संसार स्वरूप-लोकालोकाकाश स्वरूप; सांख्य-वेदाधारित ईश्वर कृत सृष्टि सृजन-रक्षण-प्रलयादि मान्यता और उससे लाभालाभईश्वरको प्राप्त कलंक; वेदोंकी 'ईश्वरकृत या अपौरुषेय' होने की मान्यताका उन्हीं वेदश्रुतिश्लोक-मंत्र आधारित युक्तियुक्त तर्क द्वारा खंड़न; षड्दर्शनाधारित गायत्रीमंत्रके विविध अर्थ विवरण और बीज मंत्रों की प्ररूपणा; वेदार्थो में किये गये गंभीर रूपसे विपरित अर्थ निरूपणोंका निर्देशन; 'वेदों के खंडनके निषेध'को स्वयं की निर्बलता छिपानेके हेतु रूप सिद्धि; सोलह संस्कारों का श्रीवर्धमान सुरीश्वरजीके 'आचार दिनकर' आधारित वर्णन-इनका इस ग्रंथमें ग्रथित करनेका हेतु-उसकी लौकिक व्यवहार रूप प्ररूपणा और आगम सम्मतता; वेद निरूपित हिंसकताकी निंदा और सार वचनोंकी अनुमोदना; जैनधर्मकी प्राचीतनाका निर्णय-बौद्ध मतसे प्राचीनता
और स्वतंत्रता-दिगम्बरोंसे प्राचीनता और उनकी विपरित प्ररूपणाओंकी असिद्धि; जैनधर्मोंकी प्ररूपणाओमें अर्वाचीन शिक्षितो द्वारा शंका और उनका अनेक प्रमाणोंसे समाधान; प्रमाणनय-स्याद्वाद-सप्तभंगी आदि की व्याख्या-प्रकार-स्वरूपादिका विशद वर्णनादि अनेक विभिन्न प्ररूपणाओंको समाहित किया है।
अंतमें महान, नीड़र, वीर ग्रन्थाकारने अपनी लघुता-भवभीरुता प्रदर्शित करते हुए पूर्वाचार्योंकी प्रविधि समाश्रित्य ग्रन्थ-रचनामें स्वदोषके लिए क्षमायाचना और विद्वद्वाँसे उन्हें संशोधित करनेकी विनती करके 'तत्त्व निर्णय प्रासाद'-महान ग्रन्थको परिपूर्णता प्रदान की है।
---- जैन मत वृक्ष ---- ग्रन्थ परिचय
“जैनमत वृक्ष" रचनाके बीज, सिद्ध कलाकार श्री आत्मानंदजी म.सा.के मेधावी मस्तकमें से अंकुरित होकर अनादिकालीन विश्वप्रवाह रूपको लेकर वृद्धिगत होते होते आपके वि.सं. १९४२के सुरतके चातुर्मासमें विशाल वृक्षरूप धारण कर गया; जिसे सं. १९४८में प.पू. श्रीमद्विजयवल्लभ सुरीश्वरजी म.सा.ने लिपिबद्ध करके प्रकाशित करवाया लेकिन श्री आत्मानंदजी म.के अंदाजानुसार, कई कारणों से, यह विशेष लोकोपयोगी न होने से आपकी ईच्छा और प्रेरणासे प.पू. श्रीमद्विजयवल्लभ सुरीश्वरजीने सं. १९४९में पुनः पुस्तकाकार रूपमें लिखकर सं. १९५६में श्री आत्मानंद जैन सभा-पंजाब, की ओरसे प्रकाशित करवाया, जिसमें हिंसक यज्ञोत्पत्ति, बौद्ध मतोत्पत्ति आदिकी ऐतिहासिक तवारिख युक्त करके और वृक्षाकारकी छपाईकी
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