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आरण्यक आदिके अनेक प्रसंगोंकी प्ररूपणा; सायणाचार्यजी, मणिलाल नभुभाई आदिके कथनोंका आधार; आरण्यकमें प्ररूपित पारमार्थिक भावयज्ञका आत्मयज्ञ स्वरूपादि अनेक प्रबल युक्तियुक्त उक्तियाँ, कथन, प्रसंग निरूपणादिके आधारों पर जैनधर्मकी प्राचीनता सिद्ध की है। इसके अतिरिक्त शाकटायन और न्यासके मंगलाचरण एवं जैनेन्द्र तथा इन्द्र व्याकरण, सकल विश्वकी सर्व विद्यायुक्त विभिन्न शब्दादि प्राभृतों एवं परवर्ती आचार्यों के व्याकरणके अनेक उत्तम ग्रन्थोंसेभी जैन साहित्य 'व्याकरण सहित' सिद्ध करके 'जैन' शब्द का मूलधातु 'जि-जय'की भी प्राचीनता सिद्ध की है।
जैन धर्मशास्त्रों के सिद्धान्त-कर्म विज्ञान, साधु सामाचारी, नवतत्त्वादिका इंगित मात्रभी वेदमें न होने से “जैनमत वेदाधारित है"-इस कथनको भी असिद्ध करते हुए 'वेदादिके सार वचनोंका जैन सिद्धान्तोंसे ग्रहण'का आक्षेप किया है। अंतमें धनेश श्रावकको प्राप्त प्राचीन तीन प्रतिमाके उद्धरणसे सर्व प्रकार से जैनधर्मकी प्राचीनता सिद्ध की है। निष्कर्ष-यहाँ वेदों की निंदा द्वेष बुद्धिसे नहीं लेकिन उनके हिंसकपने के कारण की गई है। अतः उनमें प्ररूपित निवृत्ति मार्ग तो युक्तियक्त है। संसारसे निर्वेद और वैराग्यप्रेरक प्ररूपणा सर्वज्ञ वचन प्रमाणित होने से उन्हें तो श्री सिद्धसेन दिवाकरजी आदिने भी प्रतिपाद्य माना है। अतः वाचक वर्गको निष्पक्ष एवं माध्यस्थ बुद्धिवान् ऐसे महात्मा, परिव्राजक श्री योगजीवानंद स्वामी परमहंस सदृश सत्य स्वीकारने के लिए ग्रन्थकारने प्रेरणा दी है। (श्री आत्मानंदजीके नाम उनका इस तरह का स्वीकार-पत्र और मालाबंध प्रशस्ति-श्लोकभी यहाँ प्रस्तुत किया है। त्रयस्त्रिंशति स्तम्भः--बौद्धमत एवं दिगम्बरोंसे प्राचीनता और स्वतंत्रता-- “जैन मत बौद्ध मतकी शाखा है"- इस धारणाको निरस्त करने एवं जैनमतकी स्वतंत्रता एवं प्राचीनता सिद्ध करने के लिए हर्मन जेकोबी, मेक्स-मूलर आदि योरपीय विद्वानों के अभिप्रायों को उद्धृत किया गया है। तदनुसार उन विद्वानों द्वारा बौद्ध धर्मग्रन्थ 'धम्मनिकाय' आदि ग्रन्थ और जैनों के उत्तराध्ययनादि आगम प्रमाणों से एवं अचेलकपना-निग्रंथपना आदि आचार-व्यवहार प्रमाणों के अनेक उद्धरण दिये गये हैं। दिगम्बरोंसे प्राचीनता और विपरित प्ररूपणाओंकी असिद्धि--दिगम्बर और श्वेताम्बरों की उत्पत्तिकी विरोधाभासी प्ररूपणाओंका विश्लेषण करके उत्पत्तिके समय-स्वरूप-कारणोंकी यथार्थ प्ररूपणा करनेका प्रयत्न किया है, जिसके अंतर्गत 'मूलसंघ पट्टावलि', 'नीतिसार में चार उपभेदोंकी तवारिख एवं उत्पत्ति विषयक विसंवादिता; दिगम्बरोंकी 'सर्वार्थ सिद्धि' भाष्य टीकामें श्वेताम्बर मतोत्पत्ति विषयकी, मथुरा टीलेसे प्राप्त श्रीमहावीरजीकी प्रतिमाके शिलालेखसे असिद्धि; देवर्द्धिगणिजी द्वारा शिथिलाचार पोषक आचारांगकी रचना, केवली आहार, स्त्रियों की मुक्ति, स्त्री तीर्थंकर, उपकरणोंका परिग्रह, सपरिग्रहीकी मुक्ति, रोगी ग्लानादिके लिए अभक्ष्य आहारकी निर्दोषता आदि अनेक विषयोंकी विपरित प्ररूपणाओंके प्रत्युत्तर; सर्व आगम विच्छेद तथा ज्ञानी धरसेन मुनि द्वारा भूतबलि-पुष्पदंतको ज्ञान प्रदान और उन दोनों द्वारा धवल, जयधवल, महाधवलकी रचना-उन्हीं पर आधारित 'गोम्मटसार 'की
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