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ध्वंसपूर्वक हमें मुक्ति प्राप्त करने में प्रेरणा कर। गायत्री मंत्रसे निष्पन्न बीज मंत्राक्षर:--ॐकार-प्रभाविक; भर्गोदे-शब्द स्थित श्वेत वर्णसे शान्तिपुष्टि, पीतसे स्तम्भन, रक्तसे वशीकरण और कृष्ण वर्णसे विद्वेष-उच्चाटन-मारणादि प्रयोग; भूर्भुवस्तत्-पृथ्वी आदि पंचतत्त्वरूप अर्हन् : आदि पाप प्रनाशक पंचतत्त्व स्मरणसे मनवांछित प्राप्ति; रेण्यं धीमहि ही की उत्पत्ति; वरेण्यं= 'ऐं'की उत्पत्ति, अधीमहि= 'श्री'-आदि सयोगिक महामंत्रों के निबंधन दर्शाये गये हैं। अक्षर मात्र मंत्र रूप होते हैं -यथा___ “अमंत्रमक्षरं नास्ति, मूलमनौषधम् । अ धना पृथिवी नास्ति, संयोगाः खलु दुर्भगाः ॥"
औषधि रूप विधि भी प्राप्त होती है जिसका भावार्थ है-“मेष शंगी वृक्षके पत्रदल भाग-१+गेहुं के सत्तु भाग-१+राई भाग-रका मिश्रण घृतके साथ भक्षण करनेसे बल-वीर्य प्राप्त होता है और वायु दूर होता है। निष्कर्ष-गायत्री मंत्रके इन अर्थोंको ग्रन्थकारने उपा.श्री शुभ तिलक विजयजी म. द्वारा 'गायत्री व्याख्यान में जो क्रीडामात्र लिखे गये थे उनके आधार पर लिखे हैं जिससे जैनाचार्योंकी सूक्ष्म बुद्धिका परिचय प्राप्त होता है। द्वादश स्तम्भ:-इस स्तम्भमें सायणाचार्यादिके अभिप्रायसे गायत्रीमंत्रके अर्थकी समीक्षा की गई है। सायणाचार्यजी द्वारा ऋग्वेद भाष्यमें गायत्रीमंत्रका तीन प्रकारसे और तैत्तरीय आरण्यकमें उनसे भिन्न प्रकारसे ही गायत्रीका अर्थ किया गया है; तो यजुर्वेद भाष्यमें महीधरजीने गायत्रीका एकदम अलग ढंगका अर्थ प्रकाश किया गया है। शंकर भाष्यमें गायत्रीकी उपासना विधि दर्शाते हुए “सात प्रणवादि व्याहृतियाँ और शिरः संयुक्त सर्व वेदोंके सार रूप गायत्रीको उपास्य माना है। इन सभीसे दयानंदजीने यजुर्वेद भाष्यमें जो अर्थ किया है वह अधिक विचित्र है-यथा-“मनुष्यों को अत्यन्त उचित है कि जगत् उत्पादक, सर्वोत्तम सर्व पापनाशक, अत्यन्त शुद्ध परमेश्वरकी प्रार्थना करें, जिससे प्रार्थित किया वह हमारे दुर्गुणों-दुष्कर्मोसे मुक्त करें-अच्छे गुण, कर्म और स्वभावमें प्रवृत्त करें।" और उन्होंने ही 'सत्यार्थ प्रकाश'समुल्लास-१-३ में इससे एकदम भिन्न अर्थ किये हैं। इसी तरह व्यास सूत्रों पर आठ आचार्योके विभिन्न अर्थों से विभिन्न प्रकारके केवलाद्वैत, द्वैत, द्वैताद्वैत, आदि मतोंका प्रचलन हुआ। कुमारिल और दयानंदजी आदिके कल्पित अर्थोको स्पष्ट करते हुए और नास्तिककी व्याख्या करके "एकमात्र वेदकी निंदा करनेसे ही कोई नास्तिक नहीं बन जाता"- इस कथनकी पुष्टि की है। उपरोक्त सभीकी व्याख्याओं की समीक्षा करते करते "हिंसक वेदोंकी रचना अर्वाचीनप्रक्षेपरूप-मनघड़त-परवर्ती है, क्योंकि प्राचीन वेदोमें हिंसक यज्ञों की प्ररूपणा नही है"--इसे प्रतिपादित करते हैं। “पशुवध करके यज्ञ करनेके "-एक ही कथनमात्रसे वसुराजाकी अधोगतिको उद्धृत करते हुए यज्ञशेष रूप-मांस-भोजी याज्ञिकोंके हालातका चिन्तवन करते हुए पृ.३०६ पर लिखा है-“संप्रतिकालमें अनेक जनोंने वेदोंका सत्यानाश किया है। वेदोंके सच्चे अर्थ कोई प्रगट नही करता है। हमने जो वेद समीक्षा लिखी है वह अपने मतके अनुराग या वेदोंके द्वेष से नहीं लिखी, किन्तु, यथार्थ
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