Book Title: Satya Dipak ki Jwalant Jyot
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

Previous | Next

Page 192
________________ सामर्थ्यसे प्रवर्तमान हैं। जगतके पदार्थ स्वरूप या प्रवाहरूपसे अनादि है, अतः लोक शाश्वत है और लोकसे बाहर अलोक-केवल आकाश मात्र ही है। लोकमें संसारी जीवोंका परिभ्रमण आकृति-जाति-योनि- स्वकर्म अनुसार होता हैं। इन विविध रूपोंसे गहन एवं विशद-इस लोकका न पर्यवसान है न प्रारम्भ। निष्कर्ष-अतएव अनादि-अनंत-कष्टदायी-भयजनक-यह दृढ़ संसारचक्र, जन्म आदि रूप आरें दोषरूप नेमिधारा, रागरूप तुंबघोरनाभिवाला, स्वकर्मरूप पवनसे प्रेरित निरंतर भ्रमण करता है। अतः ईश्वरको सृष्टिकर्ता मानना, केवल अज्ञानियोंकी अर्थहीन लीला मात्र है। अंतमें ग्रन्थकार द्वारा महादेव स्तोत्र, अयोग व्यवच्छेद और लोकतत्त्व निर्णय-ग्रन्थोंके अर्थरूप बालावबोधमें कृतिकार श्री हेमचंद्रचार्यजी और श्री हरिभद्र सुरीश्वरजी म.के अभिप्रायसे अथवा जिनाज्ञा विरुद्ध हुई प्ररूपणाके लिए 'मिथ्या दुष्कृत्'-क्षमायाचना करते हुए उन गलतियोंको सुधारनेके लिए सुज्ञजनोंको अपील करते हुए इस स्तम्भकी परिसमाप्ति की गई है। षष्ठम स्तम्भः-इस स्तम्भमें सृष्टि-रचना-क्रमको, विस्तृत रूपमें वेदाधारित एवं सांख्य मताधारित मनुस्मृति आदिमें विवरित संदर्भोको उद्धृत करते हुए प्ररूपित किया है। कहीं ब्रह्माकी स्वर्ण अंडे में स्वतः उत्पत्ति और उन्हींके द्वारा सृष्टि रचना वर्णित है, तो कहीं पांचभूत-बुद्धीन्द्रियकर्मेन्द्रिय-प्राण-मन-कर्म-अविद्या-वासनादि सूक्ष्म शक्ति भेदाभेद रूपमें ब्रह्माके साथ थी-ऐसे ब्रह्माने ध्यानसे पाणी रचा। अतः सूक्ष्म प्रकृति रूपसे ब्रह्माकी भेदाभेदतासे अद्वैत निर्मूल हो जाता है। और भेदाभेदकी समसमयमें प्ररूपणा बिना स्याद्वादके सहयोगसे अकथनीय है। अतएव कथंचित् भेदाभेद रूप माननेसे द्वैतरूप सिद्ध और अद्वैतरूप असिद्ध हो जाता है। अन्यथा जड़का उपादान कारण जड़ और चैतन्यका चैतन्य होता है, अतः चैतन्य ब्रह्मसे जड़-चैतन्य-मिश्ररूप सृष्टि होना असिद्ध होता है। इससे “एक ब्रह्मरूप चैतन्यकी अनेक रूप होनेकी ईच्छा"भी प्रमाणबाधित होती है। ऋग्वेद-यजुर्वेद-गोपथ ब्राह्मणमें ब्रह्माकी उत्पत्ति कमलसे और मनुजी द्वारा अंडेसे मानना भी विरोधाभास है। अंडे में ३११० अरब वर्ष पर्यंत ब्रह्माका रहना भी ईश्वरके निराबाध-सर्वशक्तिमान गुणको बाधित करता है। कहीं जड़से चैतन्य और कहीं चैतन्यसे जड़की उत्पत्तिकी प्ररूपणा भी प्रमाणबाधित है। इस प्रकार मनुस्मृत्यादि प्ररूपित सृष्टि रचना क्रम एवं प्रक्रियाको असिद्ध प्रमाणित करते हुए इस स्तम्भको पूर्ण किया है। सप्तम स्तम्भः-इस स्तम्भमें ऋग्वेद-यजुर्वेदादिके आधार पर सृष्टि रचना-क्रम-प्रक्रियाका विवेचन किया गया है। अतीत कल्पमें जीवों द्वारा किये गए कर्मके विपाकोदयकालमें भावरूप माया (अज्ञान) और कारणभूत मायाके साथ अभिन्नत्वसे रहे ब्रह्मा-ईश्वरके मनमें सृष्टि रचनेकी ईच्छा हुई, जिससे त्रिकालज्ञ योगीश्वरने बुद्धिसे विचार करके उन कर्मानुसार क्षणमात्रमें सृष्टि रचना-युगपत् विश्वमें व्याप्त सूर्यकिरण सदृश-की जिसके अंतर्गत मानस यज्ञ-प्राकृतिक या नैसर्गिक यज्ञकी कल्पना करके हविष्-इध्म-पुरोड़ाश आदि उसके भोग्याभोग्य सामग्री सर्वऋषियों के यजनके लिए रची। उसी यज्ञसे वेद-गायत्री-सर्व-पशु आदि उत्पन्न हुए और (165 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248