Book Title: Satya Dipak ki Jwalant Jyot
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 188
________________ हेतुरूप-विभिन्न गुणाश्रित व्यक्तित्वधारीकी एक प्रतिमा होना सर्वथा असंभवित है। अतएव अर्हनकी त्रयात्मक-त्रिगुणमय स्वरूप--ज्ञानमय विष्णु, दर्शनमय(सम्यक्त्व) शिव और चारित्रमय ब्रह्मा-एक आत्म द्रव्य स्वरूप, कथंचित भेदाभेद रूप है-प्रतिमा संभव भी है और सिद्ध भी। इसी प्रकार क्षिति-क्षमा, जल (निर्मलता), पवन (निःसंगता), अग्नि (कर्मवन दहनसे निर्मल योग प्राप्ति), यजमान (दयादिसे आत्म-यज्ञकर्ता), आकाश (निर्लेपता) चंद्र (सौम्यता), सूर्य (ज्ञानसे प्रकाशवान्) आदि आठ गुण युक्त ईश्वर पुण्य-पाप रहित, राग-द्वेष विवर्जित अर्हन् शिवाभिलाषीको मुक्ति पदे च्छुकको नमस्करणीय हैं। 'अर्हन्' स्थित त्रिमूर्ति वर्णन--'अ' विष्णुवाचक, 'र' ब्रह्मावाचक, 'ह' हर (महादेव) वाचक और अंतिम 'न'कार परम पदवाची हैं। जबकि जैन मतानुसार 'अ'--आदि धर्म, आदि मोक्ष प्रदेशक, आत्म स्वरूप विषयक परमज्ञान; 'र'--रूपी-अरूपी द्रव्य दृश्यमान करवानेवाला लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान रूपी नेत्रसे परम दर्शन स्वरूपी; 'ह'- (राग-द्वेष-अज्ञान-मोहपरिषहादि और) अष्टकर्मकी हनन क्रिया रूप परम चारित्र; 'न'-नवतत्त्व अतः संतोष द्वारा सर्वांग संपूर्ण-अष्ट प्रातिहार्य युक्त-नवतत्त्वज्ञ अर्थात् परम ज्ञान-दर्शन-चारित्रमय नवतत्त्वके ज्ञाता और प्ररूपक 'अर्हन्' को पक्षपात रहित नमस्कार किया है। और अंतमें संसार रूप बीजके चारगति रूप अंकुर उत्पन्न होनेके हेतुरूप अठारह दूषण क्षय भावको प्राप्त होनेवाले, नामसे ब्रह्मा-विष्णु-हर या जिन, जो भी हों उन्हें नमस्कार किया है-जैसे श्री मानतुंगाचार्य म.ने 'भक्तामर स्तोत्र-२५'में किये हैं। तदनन्तर लोक व्यवहारमें ब्रह्मा-विष्णु-महेशके चरित्र स्वरूपको भर्तृहरि, भोजराजाके कवि श्रीधनपाल, अकलंक देवादि द्वारा प्ररूपित उपहासजनक स्वरूपको उद्धत करते हुए अंततः जनसमूह कल्पित त्रिमूर्ति नहीं लेकिन यथार्थ ज्ञान, दर्शन, चारित्र-मय गुणरूप प्रतिमा जैनों के लिए उपास्य है। इस प्ररूपणाके साथ स्तम्भको पूर्ण किया गया है। तृतीय स्तम्भः इस अवसर्पिणीके पंचम-दूषम-कालमें अज्ञानांधकारको दूर करने में सूर्य सदृश, अमृतमय देशनासे प्रतिबोधित कुमारपाल द्वारा अभयदान रूप संजीवनी औषधिको प्रवर्तमान करवाकर असंख्य जीवों के जीवित-प्रदाता, निर्मल यशधारी श्री हेमचंद्राचार्यजी म.सा. द्वारा रचित आचार्य प्रवर श्रीसिद्धसेन दिवाकरजी सदृश श्रीवर्धमान स्वामीकी स्तुति रूप 'अयोग व्यवच्छेद' नामक बत्तीसीकी इस स्तम्भमें प्ररूपणा की गई है। अध्यात्म वेत्ताओं के लिए भी जिसका पूर्ण स्वरूप-ज्ञान अगम्य है, विशिष्ट ज्ञानीके वचनोंसे अवाच्य है, छाद्मस्थिकों के नेत्रयुगलों के लिए प्रत्यक्ष स्वरूप भी परोक्ष बन जाता है -ऐसे अनंतानंत गुणवान् ; आत्मरूप ज्ञानादि पर्यायों को प्राप्त-परमात्माकी स्तुति करने के लिए स्वयं को बाल-अशिक्षित-अपलापक-बालिश दर्शाते हुए भी संबलभूत-साहस प्रदाता-जिनगुण प्रति दृढ़ानुरागी परमयोगी-सार्थ व समीचीन स्तुतिकार यूथाधिप श्री दिवाकरजी सदृश निश्चल गुणानुरागी बाल कलभ तुल्य निजका मिलान करते हुए साहित्यविद् श्री हेमचंद्राचार्यजी म. (161) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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