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भेद (i) दया (अहिंसा के विविध स्वरूपोंका पालनरूप व्यवहार धर्म और (ii) सर्व कर्मरहित, भौतिकभाव रहित सर्वगुण संपन्न आत्म स्वरूपकी प्राप्तिका वर्णन करके सम्यक्त्व प्राप्ति, सद्गति प्राप्ति, परंपरासे मोक्षलाभका वर्णन किया है। सम्यक्त्वीकी करणी और सैद्धान्तिक प्ररूपणा-श्री जिनमंदिरकी आशातना स्वरूप, विविध पूजा स्वरूप, साधर्मिक वात्सल्य, सम्यक्त्वके पांच अतिचार, अतीत और वर्तमानकालीन आयु और द्वीपादि भौगोलिक एवं सूर्यमंडलादि खगोलिकादि अनेक विषयोंकी जैन-सिद्धान्तानुसार और वर्तमानकालीन प्ररूपणाओंकी विपर्यताका तार्किक युक्तियुक्त विश्लेषण करते हुए वर्तमानकालीन जैन ग्रन्थोंकी स्थिति, इन्द्रजालिककी रचनाके सत्ताईस पीठ, 'रायाभियोगेणं' आदि छ विशिष्ट आगार और 'अनत्थणाभोगेणं' आदि चार सामान्य आगारोंका वर्णन करते हुए इस परिच्छेदको पूर्ण किया है। अष्टम परिच्छेदः--धर्मतत्त्व (सम्यक चारित्र) स्वरूप निर्णय
मोक्षमार्गमें उपकारी एवं उपादेय सम्यक् चारित्रके दो भेद होते हैं-(i) सर्व सावद्य कार्यों का संवररूप सर्वविरति चारित्र (तृतीय परिच्छे दमें सुगुरु वर्णनमें इसका स्वरूप निर्देशन किया गया है।) और (ii) गृहस्थ धर्मरूप (देशविरति चारित्र)। यहाँ श्रावक धर्मान्तर्गत बारह व्रतके स्वरूपका आलेखन किया गया है। बारह व्रत स्वरूप-(१) जैनधर्म परम एवं चरम स्वरूपी उत्कृष्ट अहिंसामय होनेसे सर्व प्रथम व्रत रूप प्राणातिपात विरमण व्रत रखा है, जिसके अंतर्गत व्यवहार दया रूप द्रव्य प्राणातिपात और भावदयारूप भाव प्राणातिपातका आलेखन करते हुए आकुट्टी आदि चार प्रकारके प्राणातिपात, साधु योग्य बीस विश्वा प्रमाण और श्रावक योग्य सवा विश्वा प्रमाण दया, निकाचित-रस बंधके संवरके लिए निर्ध्वंसपने का त्याग करके यत्नपूर्वक, कोमल-करुणामय हृदयसे श्रावक योग्य करणी करनेका निर्देशन करते हुए प्रथम व्रतमें कलंकरूप पांच अतिचारों का वर्णन किया गया है। (२) स्थूल मृषावाद विरमण व्रत-इस व्रतकी स्वरूप व्याख्या, इसके उपभेद, पांच अतिचार और योग्य अधिकारीके लक्षणरूप---षट् द्रव्यके गुण-पर्यायादिका निपुण ज्ञाताकी चर्चा की है। (३) स्थूल अदत्तादान विरमण-इस व्रतकी व्याख्या, स्वरूपभेद---द्रव्य और भाव अथवा स्थूल और सूक्ष्म-का आलेखन, उन दोनों स्वरूपोंके चार-चार भेद, और पांच अतिचारका विवरण दिया गया है। (४) स्थूल मैथुन विरमण (स्वदारा संतोष) व्रत-इसके दोभेद-द्रव्यसे विजातीयसे अब्रह्म सेवन त्याग एवं भावसे, शुद्ध चैतन्य संगी---परपरिणतिका त्यागका वर्णन और पांच अतिचार दर्शाये गये हैं। (५) स्थूल परिग्रह परिमाण व्रत-द्रव्यकी मूर्छा ही परिग्रह मानते हुए नव प्रकारके परिग्रह का स्वरूप, दो भेद---बाह्य (द्रव्य), आभ्यंतर (भाव)-और द्रव्य परिमाणके नियममें वृद्धिरूप उल्लंघन-अतिचारका वर्णन किया है। (६) दिशि परिमाण व्रत--दश दिशाओंमे गमनागमनकी मर्यादा करना-यह द्रव्यसे; और स्वआत्माके स्वभाव जानकर सर्व क्षेत्रमें गमनागमनमें औदासिन्य-यह निश्वयसे-इसतरह इस व्रतके व्यवहार और निश्चय-दो भेद और पांच अतिचारों का वर्णन किया गया है। (७) भोगोपभोग परिमाण
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