Book Title: Satya Dipak ki Jwalant Jyot
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 180
________________ आगम विरोधी प्रमाणित किया है। पैंतालीस आगममें से ढूंढक मान्य बत्तीस आगमबाहय और शेष तेरह आगम और पंचांगीमें प्ररूपित अनेक सैद्धान्तिक आचार विषयक कथानुयोगाधारित २०४ प्ररूपणा अधिकारोंको मान्य करनेका कारण एवं बत्तीस आगममें प्ररूपित साधुके उपकरण, प्रतिलेखन, पच्चक्खाण, पंचांगीकी मान्यता आदि अनेक विषय परत्वे विपरित व्यवहार-वर्तनके लिए प्रत्युत्तर मांगते हुए जिनेश्वरकी वाणी रूप पंचांगीको अमान्य करना, यह जिनाज्ञा भंग और जिनेश्वरकी अवहेलना रूप दर्शाकर आगममें प्रथम दृष्टिसे दृश्यमान प्ररूपणाओंका परस्पर विरोधका कारण पाठान्तर, उत्सर्ग- अपवाद नयवाद विधिवाद चरितानुवाद, आदि वाचनाभेद है, जिसका विशद एवं गहन बुद्धिवान् निर्युकिार तथा टीकाकारादिसे समाधान प्राप्त करनेकी प्रेरणा दी है। द्वितीय प्रश्नोत्तरमें तारा तंबोलमें जैन मंदिरादिकी प्ररूपणा और बृहत्कल्प सूत्राधारित कौशांबी नगरीके स्थानादिकी चर्चा द्वारा आर्यक्षेत्र मर्यादाकी चर्चाको मिथ्या ठहराया है। तृतीय प्रश्नोत्तरमें “जिन प्रतिमाकी असंख्यात साल पर्यंत काल स्थिति की दैवी सहायसे शक्यता सिद्ध करके लौकिक व्यवहारमें भी ऋषभकूट पर असंख्यात सालमें होनेवाले अनेक चक्रवर्तीओं के नामकी स्थिति, भरतादि क्षेत्रो में अठारह क्रोडाक्रोड सागरोपम काल पर्यंत विद्यमान पूर्वकालकी बावडियाँ, पुष्करणी आदिके उदाहरण दिये हैं। यहाँ पृथ्वीकायादिकी आयु और पुद् गलकी स्थिति आदिकी भी स्पष्टता की है। चतुर्थ प्रश्नोत्तरमें स्याद्वाद शैलीसे समझने योग्य एषणीय अनेषणीय आहार, आधाकर्म दोषित लेनेदेनेके स्वरूप एवं फल प्राप्ति आदिकी चर्चा 'भगवती सूत्रादि के संदर्भ-साक्षी देकर की गई है । पंचम प्रश्नोत्तर में मुंहपत्तिका उपयोग किस तरह ( मुख पर निरंतर बांधकर रखने में विराधनाका कारण); क्यों (संपातिम त्रसकायिक जीव रक्षा हेतु); किस विधिसे (बोलते समय मुंहके सामने हाथसे पकड़कर) करना चाहिए इसे श्री ओघनिर्युक्ति, आचारांगादिके संदर्भ युक्त समझाकर, " वायुकायिक जीवों की रक्षाके लिए निरंतर मुखपर मुंहपत्ति बांधने की" प्ररूपणा, सर्वशास्त्रो में ऐसे कथनके अभावसे, असिद्ध और महामिथ्यात्व स्थापित किया है। छठे प्रश्नोत्तर में---तीर्थंकरके कल्याणक भूमि-विहार भूमि आदि स्थानों की तीर्थयात्रा, और यात्रासंघ, परिणाम शुद्धिके लिए आगम प्रमाणसे सिद्ध करके जंघाचारण-विद्याचारणादि लब्धिधारी, अन्यमुनि और भक्तजनों को भी तप जप-संयम ध्यान-स्वाध्यायादिकी वृद्धिकारक तीर्थयात्राकी उपकारकता दर्शायी गई है। - सातवें प्रश्नोत्तर में- “जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति - सूत्रानुसार शत्रुंजय तीर्थकी अशाश्वतता" की प्ररूपणा के प्रत्युत्तर में आचार्यश्रीने अन्य शाश्वत पदार्थोंकी न्यूनाधिक होने सदृश शंत्रुजयकी न्यूनाधिकता होने पर भी शाश्वतता सिद्ध की है। Jain Education International - आठवें प्रश्नोत्तरमें- "देवपूजावाची 'कयबलिकम्मा' शब्दकी सिद्धि के लिए गृहस्थावस्थामें अरिहंत द्वारा सिद्ध- प्रतिमाकी पूजा चारित्र अंगीकरण समय सिद्धको नमस्कार; राजप्रश्नीय ज्ञाता सूत्रादिमें तुंगीया नगरीके श्रावक, द्रौपदी, सूर्याभदेवादि द्वारा पूजा और अन्य अनेक ग्रंथोंके संदर्भ दिये है। इस 153 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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