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संदर्भसे अनेक युक्तियुक्त तर्क द्वारा उपरोक्त देवोंका जिनप्रतिमा पूजन और जिनेश्वर दाढा ग्रहण एवं उनका पूजन सत्य सिद्ध किया है। बाईसवें प्रश्नोत्तरमें-"जैसे स्त्रीका चित्र न देखना चाहिए वैसे ही 'प्रश्न व्याकरण' अनुसार जिनमूर्तिके दर्शनका भी निषेध है." इस कथनकी पुष्ट्यार्थ अनेक कुतर्क ---जिनप्रतिमा दर्शनसे किसीको प्रतिबोध नहीं हुआ-आदिका आर्द्र कुमार-शय्यंभव सूरि म. आदिके सम्यक्त्व प्राप्तिके उदाहरणसे प्रतिषेध करके समवायांग-भगवती-नंदीसूत्र-अनुयोग द्वारा दि सूत्रानुसार नियुक्तिकी मान्यताको सिद्ध करते हुए एवं नियुक्ति द्वारा जिन प्रतिमा दर्शनसे भव्यों को प्रतिबोध और सम्यक्त्व प्राप्ति सिद्ध किये हैं। तेईसवें प्रश्नोत्तरमें-जिनमंदिर या जिनप्रतिमा निर्माणकर्ता मंदबुद्धि या दक्षिण दिशाका नारकी होना; और भ.महावीरने श्रेणिकको नरकगति निवारणके लिए जिनमंदिर निर्माणकी प्रेरणा न देकर अन्य चार करणीकी प्रेरणा दी-अतः 'जिनमंदिर नहीं बनवाना चाहिए'-इस प्ररूपणाका मुंहतोड़ प्रत्युत्तर देते हुए उनका 'देवकुल' शब्द का अर्थ 'सिद्धायतन' करनेको भी मिथ्या सिद्ध किया है। चौबीसवें प्रश्नोत्तरमें-प्रश्न व्याकरणानुसार “साधु जिनप्रतिमाकी वैयावृत्त्य करें"-इस प्ररूपणाको विपरित बनाकर 'चेइयट्ठे का अर्थ “ज्ञान"करके जो विपरित प्ररूपणा की है, उसका प्रतिषेध ग्रन्थकारने 'उत्तराध्ययन' सूत्रके 'हरिकेशी' अध्ययन और स्थानांग-व्यवहार सूत्रादिके संदर्भ देकर किया गया है। पचीसवें प्रश्नोत्तरमें-स्थानकवासी मान्य बत्तीस सूत्रके अतिरिक्त सर्व सूत्रोंका व्यवच्छेद; महानिशीथ आदि शेष सूत्रों की रचना परवर्तीकालकी है; नंदीसूत्रकी रचना चतुर्थआरे की; साधु और श्रावकके वंदन-आचार-विधि; मंदिर न जाने के लिए बृहत्कल्पादिमें कोई प्रायश्चित्त नहीं है; भव्याभव्य-सर्व जीवोंका निश्चयसे चौदह राजलोकके सर्व स्थानोंमें उत्पन्न होना; सर्वदा उपयोगवंतके शास्त्र ही प्रमाण; देवर्द्धिगणिके लिखे शास्त्र प्रतीति योग्य नहीं; विशिष्ट ज्ञानियों की भी क्षति होने की संभावना; पंचांगी सूत्रों के विविध ८५ विरोधाभास---इन सभीके नंदीसूत्र, बृहत्कल्पअभव्य कुलकादि शास्त्रानुसार यथोचित प्रत्युत्तर लिखकर दूं ढक मान्य बत्तीस सूत्रोंमें भी अपेक्षायुक्त अनेक विरोधाभासों को प्रमाणित करने के लिए उपा. यशोविजयजी म. कृत "वीर स्तुति रूप हूंडी"के श्री पद्मविजयजी म. कृत बालावबोधको उद्धृत किया है। छब्बीसवें प्रश्नोत्तरमें- “किसी भी श्रावकके प्रतिमा पूजनका उल्लेख शास्त्रमें नहीं है"-इस कथनके प्रत्युत्तर में आचारांग, सूत्रकृतांग, आदि इकत्तीस शास्त्रों के अनेक उदाहरण देकर; एवं शंत्रुजय-आबू-राणकपुर-आदि तीर्थ स्थानों के जिनमंदिर, संप्रति-आदिके बनवाये लाखों जिनमंदिरक्रोड़ों जिन प्रतिमाके प्रमाण देकर इस कथनको असिद्ध किया है। सत्ताइसवें प्रश्नोत्तरमें-"जिन कार्यो में हिंसा होती है वे सर्व सावध करणीमें जिनाज्ञा नहीं है" -इस कथनके प्रत्युत्तरमें “स्वरूपे हिंसा और अनुबंधे दयामें जिनाज्ञा है"-ऐसे कई उदाहरणोंको
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