________________
प्रकार “कौतुक-मंगलके लिए कुरली करना"-अर्थका उपहास करके असिद्ध किया है। नवमें प्रश्नोत्तरमें-सिद्धायतन'का अर्थ 'शाश्वत अरिहंतगृह' किया है। इस अर्थकी गुण निष्पन्नता भी सिद्ध करके वैताढ्यके सिद्धायतन कूटके अर्थका विश्लेषण करते हुए इसी अर्थकी पुष्टि की है। दसवें प्रश्नोत्तरमें- “श्री गौतम स्वामीजीका यात्रा हेतु सूर्य-किरण पकड़कर अष्टापदारोहण और १५०० तापसोंके केवलज्ञान "के अधिकारको असिद्ध करने की चेष्टावालोंके, भगवती आदि सूत्रोंके उद्धरण देकर मुंह बंद किया है। तो “भगवंतने श्रेणिकादिको जिन मंदिर निर्माणका उपदेश नहीं दिया"-कथनको भी जिनमंदिर निर्माणके आवश्यकादिके उद्धरणसे सिद्ध किया है। ग्यारहवें प्रश्नोत्तरमें-“अरिहंतका द्रव्य निक्षेपा भी वंदनीय होता है"-इसे नमुत्थुणं, लोगस्स, नंदीसूत्र (जिनमें ३४ अतीताचार्योंको द्रव्य आचार्य मानकर ही वंदना की है), आवश्यकादि सूत्रोंसे सिद्ध किया है। बारहवें प्रश्नोत्तरमें- तीर्थंकरोंके नाम-संज्ञा ही है-निक्षेपा नहीं; भाव निक्षेपा ही वंदनीय है, गृहस्थावस्थामें तीर्थंकर पूजनीय नहीं, द्रव्य निक्षेपा अवंदनीय, प्रत्यक्षकी भाँति प्रतिमा अपेक्षापूर्तिके लिए अक्षम होनेसे जिन प्रतिमा वंदन-पूजन योग्य नहीं, अजीव स्थापनासे लाभ नहीं भ.मल्लिनाथके स्त्रीरूप प्रतिमासे छराजाओंका कामातुर होना, अनार्यों को प्रतिमा दर्शनसे शुभध्यान न होना-आदि कथनोंसे नाम, स्थापना, द्रव्य निक्षेपा अवंदनीय है"-इस प्ररूपणाका खंडन करते हुए महानिशीथादि सूत्रोंके संदर्भ देकरके चारों निक्षेपा पूज्य-वंद्य-आराध्य सिद्ध किये हैं। तेरहवें प्रश्नोत्तरमें- (१) "जिसका भाव निक्षेपा वंदनीय हों, उन्हींके शेष तीन निक्षेपे वंदनीय होते है"-इसे स्पष्ट करते हुए भरत चक्रीसे अद्यावधि यात्रासंघ, जिनमंदिर और जिनपूजाकी अविच्छिन्न परंपरा सिद्ध की है। (२) जिनेश्वर तल्य ही जिनप्रतिमा दर्शनसे अशभ भावोंका उपशमन और शुभ भावों का संचय होता है। (३) “वीतरागका नमूना साधु है, प्रतिमा नहीं"इस कथनकी असिद्धि, वीतरागके राग-द्वेष रहित, आतिशायी अनंत पुण्यराशी और साधुका राग-द्वेष सहित (उनसे रहित होने में उद्यमवंत) और कमपुण्यवंत होना दर्शाकर जिनेश्वर तुल्य आराध्य जिन प्रतिमा ही हो सकती है, साधु नहीं-सिद्ध किया है। चौदहवें प्रश्नोत्तरमें-“नमो बंभीए लिवीए" का अर्थ "ब्राह्मी लिपिको ही नमस्कार होता है, उसके कर्ताको नहीं"-इस प्ररूपणाको “अनुयोग द्वारा"दि सूत्रोंसे सिद्ध करते हुए जैसे जिनवाणी भाषा वर्गणाके पुद्गल रूप होनेसे द्रव्य है वैसे ब्राह्मी लिपि भी अक्षर रूप होनेसे द्रव्य है -ऐसा प्रतिपादित किया है। पंदहवें प्रश्नोत्तरमें-लब्धिवंत मुनियों ने रुचक द्वीप, मानुषोत्तर पर्वत, नंदीश्वर द्वीपादिके विविधचैत्यों को जुहारते हुए जिन प्रतिमा वंदन किये है-इसे भगवती, द्वीपसागर प्रज्ञप्ति आदि सूत्रसंदर्भोसे सिद्ध करते हुए समवायांगादि सूत्रानुसार 'चैत्य'का अर्थ, 'देवयं चेइयं 'का 'देवरूप चैत्य' अर्थ और 'चैत्यवृक्ष'का 'चौतराबंद वृक्ष' अर्थ सिद्ध किया है। सोलहवें प्रश्नोत्तरमें-भ. महावीरके पास आनंद श्रावकके कल्प्याकल्प्यके नियम ग्रहणका समर्थन;
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org