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गुरुकुल-वासके और गुरुकुल-त्यागके लाभालाभ, गुरु-शिष्यके सम्बन्धादिको भी विवरित करते हुए उपरोक्त सात लक्षणधारी भाव साधुको सुदेवत्व, सुमनुष्यत्व, सुजाति स्वरूपादि की प्राप्ति और परम्परासे मुक्तिपद प्राप्तिकी प्ररूपणा की गई है। जैन मतानुसार आत्माका स्वरूप और प्रकार--जीवात्मा स्वयंभू-अनादि-अनंत-अरूपी-वर्ण-गंधरस-स्पर्श रहित एक एक प्रदेश भी अनंत शक्तिमय एवं अनंतज्ञानमय ऐसे असंख्य प्रदेशवाले जीवके प्रत्येक आत्म प्रदेश पर आठ प्रकार के कर्मों की प्रत्येक की अनंत अनंत कार्मण वर्गणासे आच्छादित होनेसे शरीर व्यापी, संख्यासे अनंतानंत-चैतन्य स्वरूपसे एक समान (लेकिन एक आत्मा सर्वव्यापक नहीं), कर्मकाकर्ता कर्मविपाक-भोक्ता, कर्मबंधक, कर्मनिर्जरक, निर्वाणपदप्रापक, कर्मसहित-कथंचित् रूपी और कर्मरहित-कथंचित् अरूपी, चौदह राज-लोकमें ५६३ जीव स्वरूपोंसे चौर्यासी लक्ष जीव-योनि और चार गतिमें स्वकर्मानुसार प्राप्त होता हुआ परिभ्रमण करता है तथा आराधना-साधनाके योग प्राप्त होने पर उत्तरोत्तर गुणस्थानक प्राप्त करता हुआ सर्व कर्मक्षय करके मुक्ति प्राप्त करता है।
यहाँ आत्मा-परमात्माका स्वरूप, सृष्टि सर्जन-संचालन, कर्म-व्यवस्था, आत्मिक शक्ति, पुण्य-पाप स्वरूप, आत्मा परमात्माकी व्यापकता एवं स्थितित्व, संसारी जीवके-५६३ भेद आदि . अनेक विषयोंकी अतिसंक्षिप्त फिरभी न्याय पुरःसर युक्तियुक्ततासे प्ररूपणा करके श्री हेमचंद्राचार्यजी म. कृत 'महादेव स्तोत्र' के अनुसार बहिरात्मा-अंतरात्मा-परमात्मा-तीन प्रकारके आत्माका विवेचन किया गया है-यथा- "परमात्मा सिद्धि संप्राप्ता, बारात्मा च भवांतरे ।
अंतरात्मा भवेद्देह, इत्येवं त्रिविधः शिवः ।।" मिथ्यात्वादिके उदयसे इष्टानिष्ट में, राग-द्वेषयुक्त, बुद्धिवान, भवाभिनंदी जीवात्मा 'बहिरात्मा' है। तत्त्वज्ञानमें श्रद्धाधारी, कर्म स्वरूप-ज्ञाता, ज्ञानमय-सदा अखंडित आत्मद्रव्यका अंतर भावसे चिंतक, परभावसे दूर-स्वरूप रमणमें रममाण (बारहवें गुणस्थानकवर्ती) जीवात्मा “अंतरात्मा" मानी गई है। और तेरहवें गुणस्थानक वर्ती के वली-देहधारी शुद्धात्मा एवं पूर्णायुष्य होने पर देहरहित-अशरीरी सिद्धात्मा-(अर्थात् शुद्धात्मा और सिद्धात्मा दो रूपमें) “परमात्मा" स्वरूप निरूपित किया गया है।
अंतरात्मा ही तेरह-चौदह गुणस्थानक स्पर्शते हुए शैलेशीकरणसे सर्वकर्ममुक्त होनेसे शुद्धात्मा-सिद्धात्मा-परमात्मा बन जाती है। अतः परमात्मा-परमेश्वर होने के पश्चात् आत्मा, अपना सच्चिदानंद, अमृतमय, आत्म स्वरूप-सुख छोडकर विषयजन्य शारीरिक-सांसारिक सुखकी, तन-मनके अभावके कारण, कभी वांछना नहीं करता। अतएव ऐसे वीतराग ही देवबुद्धि करके मुक्ति प्राप्त हेतु आराध्य है। निष्कर्ष---बिना आत्मबोध मनुष्य, देहधारी शंग-पूंछ रहित-पशु तुल्य होता है क्योंकि आहारनिद्रा-भय मैथुनादि सर्व संज्ञा दोनों में तुल्य रूपमें दृश्यमान होती है। जब मनुष्यको आत्मबोध हो जाता है तब उसके लिए सिद्धपद अत्यन्त समीप है। वह प्रयत्न करने पर सच्चिदानंद,
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