Book Title: Satya Dipak ki Jwalant Jyot
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 177
________________ योग्य बीज रूप माने जाते हैं। जघन्य दस; मध्यम; या उत्कृष्ट इक्कीस गुण प्राप्तिसे धर्मकरणी शुद्ध-विशुद्धतर-विशुद्धतम बनती जाती है। उपरोक्त इक्कीस गुण प्राप्त धर्माराधक जीवको कैसा धर्म आचरणीय है इसका निर्देश श्रावक और साधुका स्वरूप, भाव श्रावक और भावसाधुके लक्षणादिके वर्णन द्वारा करते हुए तीन प्रकार की आत्माका स्वरूप वर्णित किया गया है श्रावक का स्वरूप--श्रावक दो प्रकारके (i) आस्तिक-विनयवान-धर्मार्थ प्रयत्नवान् अविरित श्रावक और (ii) प्रतिदिन सुगुरु मुखसे धर्मोपदेशमें संप्राप्त दर्शनादि रत्नत्रय समाचारी रूप जिन वचन सम्यक उपयोग सहित श्रवणकर्ता देशविरतिधर श्रावक। सर्व विरतिधर साधुका स्वरूप-आर्यदेश-शुद्ध जाति-कुलोत्पन्न क्षीण पाप कर्मा, निर्मल बुद्धिवान्, मनुष्य भवकी दुर्लभता-लक्ष्मीकी चंचलता-संसारका भयंकर स्वरूप ज्ञात करके उनसे विरक्त बना हुआ, अल्प कषायी, विनीत, सुकृतज्ञ, श्रद्धावान्, प्रशम-उपशम गुणधारी व्यक्ति हों। 'स्थानांग' आगमानुसार श्रावक या साधु---नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव-चार निक्षेपे आराधने योग्य हैं। भाव श्रावकके चार भेद-आदर्श (आरिसा) सदृश, पताका सदृश, वृक्षके ढूंठ सदृश और खरंट सदृश-इनके लक्षणोंको लक्षित करते हुए प्रथम और अंतिम भेदवाले श्रावक मिथ्या द्रष्टि होने पर भी जिनपूजादि व्यवहार पालन करने के कारण उन्हें व्यवहार नयसे श्रावक माना हैं। भाव श्रावकके क्रियागत छ लक्षण-(१) चार प्रकारके कृतव्रतकर्मा (२) छ प्रकारसे आयतन सेवी, ऐसे शीलवान, (३) पांच प्रकारसे गुणवान्, (४) गुणभंडार-गुणज्ञ गुरुओंकी, चार प्रकारसे भक्ति-वैयावृत्त्यकर्ता (4) चार प्रकारसे ऋजु व्यवहारी, और (६) छ भेदोंसे प्रवचन कुशल-भाव श्रावकके ये छ लक्षण दर्शाते हुए भाव श्रावकके भावगत सत्रह लक्षण-का स्वरूप सुंदर ढंगसे समझाया है।-यथा-स्त्री, इन्द्रिय, अर्थ(धन), संसार, विषयावासना), आरम्भ-समारंभ और गृहवास-आत्माके अहितकारी-का त्यागी अथवा स्ववशकर्ता, सम्यक्त्वी, धर्म सिद्धान्तको बुद्धि-तुलासे समीक्षित करके स्वीकारनेवाला, चैत्यवंदनादि सर्व क्रिया आगम प्रणीत ही करनेवाला, तीन प्रकारका दान-दो भेदसे शील-बारहविध तप और भावादि चतुर्विध धर्ममें प्रवृत्त, विहित-हित-पथ्य धर्मोपदेश, जिनपूजादि सत्प्रवृत्तिमें लौकिक लज्जा न माननेवाला, सांसारिक पदार्थमें अरक्त-निस्पृह, मध्यस्थ, नश्वर पदार्थों की आसक्ति-प्रतिबंधका त्यागी, भोगोपभोगमें भी दाक्षिण्यताके कारण मजबूरीसे प्रवृत्त, निराशंस गृहवास पालक-निर्लेप, संसारी भावश्रावक, संसार त्यागके लिए तो अशक्त लेकिन संसार त्यागकी आसक्ति रखता हुआ, द्रव्य साधु समान होता है-यथा-"मिउ पिंडो दव्व घडो, सुसावओ तह दव्य साहुति।" याने मिट्टीपिंड-द्रव्यघट है, वैसे साधुत्वका इच्छुक-भाव श्रावकके गुणोपार्जित-उनमें स्थित भावभावक भी द्रव्य साधु ही है। भाव साधुका स्वरूप-भाव साधुमें सात लक्षण दृष्टि गोचर होते हैं-सकल मार्गानुसारी क्रियाधारक, अनभिनिवेश (आग्रह रहित), संप्रति श्रद्धाप्रवर (चार प्रकारसे श्रुतचारित्रधर्ममें श्रद्धावान्), प्रज्ञापनीय, संप्रति क्रियामें अप्रमत्त यथाशक्य विविध तपादि अनुष्ठानोंका आचारी, गुणानुरागी एवं गुर्वाज्ञाधारक। यहाँ दो प्रकार के मार्गका स्वरूप, स्थानांगाधारित पांच प्रकारके व्यवहार मैत्र्यादि चार भावना स्वरूप, गीतार्थ गुरुके छत्तीस प्रकार से छत्तीस गुणों में से तीन प्रकार के छत्तीस गुणों का वर्णन, (150) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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