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अतः जैनधर्मी सांप्रतकालीन चार वेदोंको मानते नहीं हैं और तत्कालीन लालची -स्वार्थी-पांखडी-हिंसक धर्म प्ररूपकोंको झूठे देव-गुरु-धर्म-शास्त्र आदिको छोड़कर सत्य-शील-संतोषपूर्ण जीवन व्यतीत करनेका उपदेश देनेका हेतु है।"
यहाँ वेदों के मंत्र-तंत्र-यज्ञादि हिंसक अनुष्ठानोंसे त्रस्त और जैन बौद्धोंकी अहिंसक प्ररूपणाओं के प्रचलनसे, दयानंदजी आदि अनेक वैदिकों द्वारा अनुचित-स्वच्छंद-कल्पित परिवर्तीत अर्थों की प्ररूपणा---मांसाहार परिहारकी स्वीकृति और दयानंदजीकी कल्पित मुक्तिकी मान्यताका उपहास एवं जैनधर्मके धर्म सिद्धांत विज्ञान-भूगोल-खगोलादिकी प्ररूपणाके उनके द्वारा किये गए खंडनका भी खंडन करके प्रतिवाद किया गया है, तो भक्ष्याभक्ष्य या गम्यागम्यके विवेक शून्य-भोग विलास और कुकर्ममें मस्त वाममार्गका प्रचलन-उनमें गोमांस भक्षणके निषेधसे अनुमानतः परवर्तीकालमें माना जा सकता है।
अंतमें जैनधर्मकी उदारता प्रदर्शित करते हुए, जैनधर्मीओंने अपनी जाज्वल्यमान-प्रचंड़ शक्तिके होते हुए भी किसीके सिर धर्म थोपने की जबरदस्ती नहीं की है। इसके समर्थनमें अनेक राजाओंके राज्यकालमें किये गये फरमान पेश करके , ब्राह्मणों के पाखंड़ न स्वीकारने पर जैनों की 'नास्तिक' रूपमें बदनामी और वेदादि शास्त्र-श्रुतियों के उद्धरण देकर नास्तिक. आस्तिक निष्कर्ष रूपमें उनकी ही नास्तिकता सिद्धिका प्रयास किया है। प्रथम खंड-वेद स्वरूप--इसमें वेदरचना, वेद स्वरूप, वेदोंका इतिहासादिकी विस्तृत प्ररूपणा की गई है। डो. हेगके संशोधित 'ऐतरेय ब्राह्मण' अनुसार यज्ञ-सामग्री और क्रियाका उल्लेख करते हुए यज्ञ करनेका कारण, यज्ञविधि, पशुबलिकी विधि, होम और यज्ञसे फल प्राप्तिका वर्णन करके हिंसक यज्ञों के स्वरूपका अनेक संदर्भ सहित उल्लेख किया गया है. यथासायनाचार्य कृत भाष्य, तैतरेय शाखाके छ अध्याय, कृष्ण यजुर्वेदके तैतरेय ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण की संहिता, ऋग्वेदका ऐतरेय ब्राह्मण, कात्यायन सूत्र, पुराण, सामवेद, उसकी संहिता और उसके आठ ब्राह्मण, अथर्ववेदके गोपथ ब्राह्मण, आश्वलायनके गृह्यसूत्रकी नारायण वृत्ति, आपस्तंबीय शाखाके ब्राह्मणों के 'धर्मसूत्र'की 'हरदत्त' टीका, माध्यंदिनी शाखाके कात्यायन, लाट्यायनादिके सूत्र, मत्स्य पुराणका श्राद्धकल्प, महाभारतमें शिकारकी अनुमोदना, श्राद्ध विवेक, उत्तर रामचरित, पद्म-पुराणादिमें अश्वमेधादि यज्ञ और व्यासजी, वैशंपायन, शंकराचार्य, आनंद-गिरि आदि द्वारा हिंसा एवं मांसाहारका समर्थन किया गया है। इस तरह मनुस्मृति आदि रचनाओंसे पूर्वकी रचनाओंमें तो सम्पूर्ण हिंसक यज्ञोंकी प्ररूपणा की गई है। अतः यह कह सकते हैं कि, हिंसक प्ररूपणाओंसे भरपूर वेदोमेंसे अगर हिंसाको अलग कर दिया जाय तो वेदमें कुछभी न रह पायेगा। स्वतः सिद्ध हो जाता है कि ऐसे हिंसक वेदवचन कृपानिधान-दयावान-परमेश्वर नहीं बोल सकते हैं, अतः वेद अपौरुषेय या ईश्वरकत नहीं हो सकते। ऐसी ऋचायें और सक्तोंके उद्धरण;-ऋग्वेद संहिता, शौनक ऋषि कृत 'सर्वानुक्रम परिशिष्ट परिभाषा', तैतरेय आरण्यक आदिमें हैं, जो उन्हें पौरुषेय सिद्ध करते हैं।
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