Book Title: Satya Dipak ki Jwalant Jyot
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 174
________________ पंथ निकले तो वैदिकोंने ही हिंसक यज्ञों की निंदा करनी प्रारम्भ करके यज्ञ रूपी नावको अदृढ़; यज्ञकर्ता-मूर्ख अज्ञानी-नरकगामी-अनंत भवभ्रमण करनेवाले, महादुःखी और हिंसक यज्ञोंको सदा-सर्वदा अनर्थकारी पापवर्धक माना एवं नारदजी, युधिष्ठिर, विचरव्यु आदि द्वारा “वह शास्त्र ही नहीं जो हिंसाका उपदेश दें"- कथन प्रमाणित किया गया। जैन और बौद्धों द्वारा अहिंसा प्रचलनसे मांसाहार विषयक अनेक द्वंद्व चलें। फलतः कई लोगों द्वारा-वेद विहित हिंसामें पाप नहीं है, अन्यत्र अहिंसाका पालन करना चाहिए"आप्यायन प्रोक्षणादिसे संस्कारित मांस हव्य और कव्य होनेसे भक्ष्य है"-प्ररूपणा की गई। ऐसी प्ररूपणावाले निर्दयी-अज्ञानी-हिंसक शास्त्रों के , श्री दयानंदजी आदिने स्वकपोल कल्पितनवीन-झूठे-असमंजस अर्थ करके उन वेद-पुराण-उपनिषद-स्मृति-महाभारत-शंकरविजयादिमें प्ररूपित हिंसाको छिपानेका व्यर्थ प्रयत्न करके पूर्वाचार्योंको भी मृषावादी बना दिया है। इसके अतिरिक्त 'वेद भाष्य भूमिका में दयानंदजीने पतंजलिके योगशास्त्र, गौतमके न्यायशास्त्र, व्यासजी और बदरजीके वेदान्त-ऋग्वेद-यजुर्वेद, एवं जैमिनि-याज्ञवल्क्य-बादरायणादिके मतानुसार और उपनिषदके विपरित अर्थ करके बारह प्रकारकी मुक्तिका स्वरूप वर्णित करते हुए उसकी प्राप्तिके उपाय सूचित किये हैं। तदनन्तर दयानंदजीकी स्वयंकी मोक्ष विषयक मान्यताका निरूपण किया है। दयानंदजी द्वारा उध्दत मोक्ष विषयक--व्यासजी, उनके पिता और शिष्य-तीनों के असमंजस अभिप्रायको लक्षित करके तीनों के भिन्न-भिन्न अभिप्रायसे वेदमें मुक्तिकी प्ररूपणा ही असमंजस है-- ऐसा सिद्ध किया है। इसके अतिरिक्त दयानंदजीके मतानुसार "मुक्तजीव लोकालोकमें सर्वत्र विचरण करते हैं। "-इस उक्तिके लिए सात विभिन्न पक्ष बनाकर उसका खंडन करते हुए उसे युक्ति विकल और प्रेक्षावानों के लिए अमान्य निर्णित किया है। उनके द्वारा प्ररूपित ॐकारके अर्थका खंडन करते हुए चुनौतिके रूपमें विश्वके किसीभी शब्दकोशमें ऐसे 'उपहासजनक' अर्थका निषेध किया है। ऐसे अर्थग्रहण करनेसे परमात्माके सर्व उत्तम गुण असिद्ध हो जाते हैं। प्राचीन वेदमतानुसार ॐकारमें---रजोगुण-विष्णु, सत्त्वगुण-ब्रह्मा, तमोगुण-शंकर---स्थित मानने से ॐकारका तीन खंडोंमें विभाजन हो जाता है जो अयथार्थ है। अतः इन सभी भ्रमयुक्त अर्थोकी शुद्धिके लिए जैन मतानुसार ॐकारका यथार्थ अर्थ प्ररूपित किया है-यथा -पंचपरमेष्ठि स्थित ॐकार---अ=अरिहंत, अ=अशरीरी, आ आचार्य, उ-उपाध्याय, म्=मुनि---इन पांचों के गुण स्थित, उत्कृष्ट उपास्यों के प्रथमाक्षरसे बननेसे अर्थ समुच्चयसे एकता और यथार्थ-सत्य अर्थकी प्रतीति होती है; और उनके १२+८+३६+२५+२७=१०८ गुणों के कारण मालाके १०८ मोतीकी परिकल्पना भी यथार्थ सिद्ध होती है। श्री दयानंदजीने अनेक मतोंको संकलित करके-जीर्ण श्रुति-सूत्रों के मनघडंत और प्रमाण बाधित अर्थों को लेकर 'सत्यार्थ प्रकाश' नामक ग्रंथ रचना की है, जिसमें वेद-उपनिषदादिके अर्थको मिथ्या ठहराकर ईश्वर के केवल व्युत्पत्तिजन्य पचासों नाम लिखे हैं, उसे शब्दशक्ति (147 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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