________________
होता है। अतः इस गुणस्थानकको 'सूक्ष्म संपराय' कहते है। यहाँ जीवको १७ का बंध; ६० का उदय और १०२ की सत्ता प्राप्त होती है। और जो जीव मूर्तिरूप सहज स्वभावसे सकल मोहका उपशमन करता है वह जीव 'उपशांत मोह' गुणस्थानक प्राप्त करता है। (१२) क्षीण मोह---निष्कषाय-शुद्धात्मभावसे सकल मोहके क्षय करनेवाले जीव 'क्षीणमोह' को प्राप्त करते हैं। इस गुणस्थानक के अंतमें जीवको केवल एक शातावेदनीय का बंध, ५७ का उदय और १०१की सत्ता होती है। (जीव आठवें गुणस्थानकसे ही क्षपक या उपशमकके यथायोग्य श्रेणिका आरोहण करता है। यहाँ उपशमककी योग्यता, उनके करण, स्थिति, फलप्राप्ति, भवों की संख्या, उनकी पतीतावस्था या मोक्ष प्राप्तिका स्वरूप वर्णित करते हुए उपशम श्रेणिका और क्षपक की योग्यता-आसन-स्थिति-ध्यानादिका स्वरूप-भाव प्रधानता, ८-९१० गुणस्थानक पर शुक्लध्यानका प्रथम चरण, बारहवेंमें द्वितीय चरण प्रवेश आदिके विवेचनके साथ ही धर्मध्यान-शुल्कध्यान का स्वरूप सरल शैलीमें प्रस्तुत किया है। (१३) सयोगी के वली---बारहवेंके अंतमें ध्याता के वली बनता है और तीनों योगकी विद्यमानताके कारण इन्हें सयोगी के वली कहा जाता है। इनको क्षायिक-शुद्धभाव-परम प्रकृष्ट सम्यक्त्व एवं यथाख्यात चारित्र प्राप्त होता है। उनके केवल ज्ञानमें चराचर त्रिलोकके त्रिकालिक, उत्पाद-व्यय-प्रौव्ययुक्त द्रव्य-गुण-पर्यायके संपूर्ण-अनंतज्ञान हस्तामलकवत् भास्वर होता है। तीर्थंकर के वलीको आतिशायी पुण्य प्रभावसे अद्भुत एवं अद्वितीय अतिशय युक्त रिद्धि-समृद्धि प्राप्त होती है। वे चतुर्विध संघरूप तीर्थकी स्थापना करके शाश्वत जैनधर्मका प्रवर्तन करते हैं। अन्तमें आयुष्य पूर्ण होने के अंतर्मुहूर्त पूर्व के वली समुद्घातकी प्रक्रिया, अंतिम दो चरण युक्त शुक्ल ध्यानकी प्रक्रिया, तीनों बादर एवं सूक्ष्म योगों के निरोधकी प्रक्रिया आदिका अद्भूत वर्णन करते हुए शाता वेदनीयका बंध, ४२ का उदय तथा ८५ की सत्ताकी परूपणा की है। इसके साथही आयुष्यके पांच हृस्वाक्षर-अ इ उ ऋ तृ-का उच्चारण काल समय शेष रहने पर साधक शैलेषीकरण करता है। (१४) अयोगी केवली गुणस्थानक प्राप्त कर्ता साधककी स्थिति, उपान्त्य समयमें कर्मकी अबंधकता, और ७२ प्रकृतिकी सत्ता एवं अंतिम समय १३ प्रकृतिका क्षय करते हुए कर्मरहित होकर सिद्धोंकी गति, स्थिति, सुख, अवगाहना, गुण मोक्षपद प्राप्ति और सिद्धशिलाका स्वरूप, स्थान---मुक्तिका स्वरूप, उपादेयता आदिका विवेचन करते हुए परिच्छेद की समाप्ति की है। सप्तम परिच्छेदः- धर्मतत्त्व (सम्यक् दर्शन) स्वरूप निर्णय . सुदेव, सुगुरु, सुधर्म पर दृढ़ श्रद्धायुक्त सम्यक्त्व---सुदेव श्रद्धाके दो भेद-(i) सुदेव-अरिहंतके चारों निक्षेपा प्रति दृढ श्रद्धा रूप व्यवहार श्रद्धा और (ii) अनन्त गुणधारी सच्चिदानंद स्वरूपा स्वयंकी आत्माका निश्चय होने रूप निश्चय श्रद्धाका वर्णन; सुगुरु श्रद्धाके दो भेद (i) सुपात्र रूप सुगुरुकी समर्पित भावसे भक्ति-वैयावृत्य-आज्ञापालन रूप व्यवहार श्रद्धा और (ii) शुद्धात्म विज्ञानपूर्वक, हेयोपादेयके उपयोगयुक्त परिहारवृत्तिवाला गुरुत्व स्वयं पाना, यह निश्चय श्रद्धाका वर्णन; धर्म श्रद्धाके दो
(139
Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org