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'बृहत् नवतत्त्व संग्रह' ग्रन्थमें प्रत्येक गुणस्थानकके अधिकारी जीवों के गुण-लक्षणादिका वर्णन प्राप्त होता है, जबकि, यहाँ प्रत्येक गुणस्थानकका स्वरूप-लक्षणादिका विवेचन किया गया है। इस परिच्छे दमें सिद्धिसौधके शिखरारूढ होने के लिए गुणोंकी चौदह श्रेणियाँ हैं-उन श्रेणियों पर पगधरण रूप गुणों से गुणांतरकी प्राप्तिरूप स्थानको भूमिकाको गुणस्थानक कहते है। गुणस्थानकका स्वरूप, प्राप्तिक्रम, गुणस्थानक धारककी योग्यायोग्यताका स्वरूपादि संक्षिप्त फिरभी स्पष्ट-सुरेख-सरल एवं सुंदर निरूपण किया है। इन गुणस्थानककी प्राप्ति साधक जीवनकी कसौटीके फलरूप मान सकते है।
(9) मिथ्यात्व-अर्थात् विपरीत आत्मीक परिणाम। इसके दो प्रकार (i) अनादि अनाभोगिक (अव्यवहार राशिवर्ती जीवोंका अव्यक्त) मिथ्यात्व और (ii) (व्यवहार राशिके संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंका व्यक्त मिथ्यात्व) आभिग्राहिक आदि चार मिथ्यात्व। द्वितीय प्रकारके चार मिथ्यात्व-अवगुण होने पर भीबुद्धिजन्य होनेसे उनमें ज्ञानांशके अस्तित्वके कारण उनको 'गुणस्थानक' संज्ञा प्राप्त होती है। अभव्यापेक्षया अनादिअनंत और भव्योंकी अपेक्षा सादि सांत अथवा अनादिसांत स्थितिवाले मिथ्यात्व गुणस्थानकवर्ती जीवको ११७ कर्म प्रकृतिका बंध, ११७ प्रकृतिका उदय और १४८ की सत्ता होती है। (२) सास्वादन-इस गुणस्थानक प्रापक-जीव-केवल उपशम सम्यक्त्वी-इसे पतीतावस्थामें कैसे प्राप्त करता है, उसे निरूपित करते हुए, यहाँकी स्थिति-(छ आवलिका)-और इस गुणस्थानकवर्ती जीव योग्य १०१ कर्म प्रकृतिका बंध, १११ का उदय और १४७की सत्ताकी प्ररूपणा की है। (३) मिश्र--दर्शन मोहनीय कर्मके सम्यक्त्व और मिथ्यात्व-दोनों भाव समकाल-समरूप उदयमें आते हैं। इस स्थानवी जीवको सर्वधर्म समान भासित होते हैं। इस स्थानवी जीव न आयुबंधक होता है, न मरता है। यहाँ जीव ७४ कर्म प्रकृतिका बंध, १०० का उदय और १४७ की सत्ता प्राप्त करता है। (४) अविरति सम्यक दृष्टि---भव्य संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवकी, निःसर्गसे या अभ्यासवश उपदेश श्रवण आदि निमित्तसे सर्ववित् प्रणीत तत्त्वोमें यथावत् निर्मल भावना प्रगट होना, यही सम्यक्त्व है। यहाँ जीवको अविरतिके कर्मोदयसे विरतिकी (पच्चक्खाण या नियम) अभिलाषा होने पर भी ग्रहण नहीं कर सकता है, लेकिन शासन प्रभावक और आत्मोन्नति कारक होते है। आत्माके साथ यह सम्यक्त्व उत्कृ.साधिक ६६ सागरोपम वर्षतक रहता है। जीवका अर्धपुद्गल परावर्त-काल परिभ्रमण शेष रहने पर यह गुणस्थानक प्राप्त होता है। इस गुणस्थानकवर्ती जीवमें प्रशमता, मोक्षाभिलाष रूप संवेग, परम वैराग्यरूप संसारसे निर्वेद, आस्तिक्य और दीन-दुःखी पर अनुकंपाके दर्शन होते हैं। इस गुणस्थानक प्राप्तिकी प्रक्रिया-जीव यथाप्रवृत्तिकरणसे ग्रन्थि प्रदेश प्राप्ति, अपूर्वकरण से ग्रन्थिभेद का प्रारम्भ और अनिर्वृत्तिकरणसे ग्रन्थिभेदकी समाप्ति करके सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है। अबद्धआयु क्षायिक सम्यक्त्वी जीव तद्भव मोक्ष, और सम्यक्त्व-प्राप्ति पूर्वबद्धआयु जीव तीनसे पांच भवमें मोक्ष प्राप्ति करता है। यहाँ जीवको ७७ कर्म प्रकृतिका बंध, १०४का उदय और क्षायिक सम्यक्त्वीको १३८की एवं उपशम
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