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कार्यभी सिद्धि प्राप्त बन जाते हैं। मंत्रवादी यदि उसका सदुपयोग करें तो इन मंत्र-तंत्रसे जगतकी अनेक प्रकारसे कल्याणकारी सेवायें की जा सकती हैं। मंत्रका विषय बुद्धिगम्य नहीं श्रद्धास्थित होता है। आपके पासभी यह मंत्र रहस्य था, जिसका आपने शासन प्रभावनाके लिए उपयोग किया था। और अपने शिष्य-प्रशिष्यादि परंपरामें भी प्रदान किया था-यथा-“आत्मारामजी महाराजके विद्वान शिष्य श्री शान्ति विजयजसे एकबार वार्तालाप करते हुए पूछनेपर श्री शांतिविजयजीने बताया कि, “रोगापहारिणी, अपराजिता, श्री सम्पादिनी आदि जैन विद्यायें मेरे परमोपकारी गुरु आत्मारामजी म.ने प्रसन्नतापूर्वक मुझे दी हैं, जो उन्हें मेड़ता निवासी - बड़े मंत्रवादी और सदाचारी वयोवृद्ध यतिजीसे प्राप्त दुईं थीं । यतिजीने जिनशासनके अनूठे प्रभावक और अतियोग्य अधिकारी जानकर ही ये सिद्ध विद्यायें, अपने अयोग्य शिष्योंको न देकर आपको दी थीं, जो केवल पाठ करनेपर कार्य सिद्धि करवाती थी। आपने भी अत्यंत विनम्रता एवं प्रसन्नतापूर्वक धर्मोपयोगके लिए इसे शिख ली थी और प्रसंग आने पर उपयोग करके जैनधर्म प्रभावना की थी ।"११३
इसके लिए एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा। अंबालाके श्री सुपार्श्वनाथ भगवानके श्री जिनमंदिरजीकी प्रतिष्ठावसर पर सम्पूर्ण तैयारी हो जानेके पश्चात् अचानक घनघोर काली घटायें घिर आयीं और जैसे बरस पड़ने पर तुली हुई थीं। रंगमें भंग होने ही वाला था। श्रावकोंकी विनती ध्यानमें लेते हुए-प्रतिष्ठाका योग्य मुहूर्त संभालनेके लिए-आपने मंत्रित बांस गड़वाया। बादल बिन बरसे ही बिखर गये। लेकिन आश्चर्य यह हुआकि जब तक बांस गड़ा रहा तब तक बादल उमडघूमड़कर आते और बिना बरसे ही बिखर जाते। जब उस बांसको विसर्जित किया गया-तुरंत ही वर्षाका आगमन हुआ। 'ऐसा क्यों और कैसे हुआ' ? इस प्रश्नका आधुनिक वैज्ञानिक युगमें-मंत्र तंत्र को न माननेवालोंके पास कोई उत्तर नहीं। अनूठी व्याख्यान कलाके स्वामी---जिनकी वाणीमें पत्थरको भी मोम-कठिनको भी कोमल-बना देनेकी शक्ति है, ज्ञानकी गरिमायुक्त विद्वत्ता बाल सुलभ सरलता, ओजसयुक्त प्रभावकता, काव्यमय रस माधुर्य और प्रसंग या भावानुरूप आरोह-अवरोकी अस्खलित प्रवाहिता, चित्रकार-सी वर्णन शैली और संगीतज्ञकी स्वर और लयबद्ध थिरकन, यथायोग्य शब्दचयन शक्ति और भाषाका प्रभुत्व झलकता हों वह व्याख्याता श्रोताओंको स्तब्ध प्रतिमा सदृश जकड़कर रख सकता है। श्रोता प्रवचनके प्रवाहमें बहते बहते अपने आपको भूल जाता है-प्रवचनमें डूब जाता है-सुधबुध भूलकर जैसे अनुभूत करता है कि, यह पीयूषधारा अनवरत बरसती रहें- बहती रहे और में निरंतर अमृतपान करता रहुँ; इसका कभी अंत न हों। “आचार्यश्रीकी वाणी भवसागरसे पार उतारनेवाली नौकाके समान थी । जबवे बोलते थे मानो देव पुरुष बोल रहा हो.........उस विराट योगीकी वाणी मेघके समान गंभीरथी, जो श्रोताओंको मोहनिद्रासे जगा देती थी। वाणी इतनी सरल जैसे शिशुकी मुस्कान, मधुर ऐसी जैसे मिश्रीकी डली-जो कोई उसे सुनता आत्मलीन हो जाता था” ११४
सुरीश्वरजीकी ऐसी गुणालंकृत वाणीका पान करनेका सौभाग्य जिसको मिला वे अपनेको धन्य मानते हैं। सुरत शहरके सुरचंद्र बदामी अपने बाल्यकालके स्मरण मुकुरमें अंकित कुछ चित्रोंको उद्घाटित करते हुए उपरोक्त बातोंको सिद्ध करते नज़र आते हैं ---“महाराजश्रीकी व्याख्यान शैलीसे श्रोतागण इतना मुग्ध वना रहता था कि प्रारंभसे अंत तक व्याख्यान होल ठसाठस भरा रहता था। महाराजश्रीकी व्याख्यान
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