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अगर मान भी लें, तो निश्चित उनका ईश्वरत्व नष्ट हो जायेगा---न वह निर्विकार रह सकेगा न निरंजन, न कर्म निवृत्ति प्राप्त होगी न कृतकृत्यता, न वीतरागता रहेगी न सर्वज्ञता । आत्मा और कर्म - अतएव "न ईश्वर जगत्कर्ता है, न एक अद्वैत परम ब्रह्म पारमार्थिक सद्रुप” । जीव कर्म करनेमें और भोगने में स्वतंत्र है। कर्म भुक्तानेके लिए उसे किसीकी सहायताकी आवश्यकता नहीं होती, लेकिन निमित्त प्राप्त होनेपर स्वयं भोक्ता बन बैठता है। जीवकी शरीर रचना, वर्णादि रूप और स्वरूप, वेदना, लाभालाभ, ज्ञानाज्ञान, मोहादि सर्व अष्टकर्मवश ही है। सृष्टिके प्रत्येक कार्यके घटित होने में काल, स्वभाव, नियति (भवितव्यता) कर्म और जीवका पुरुषार्थ इन पांच कारणोंकी एक साथ एक समयमें संयोग प्राप्ति आवश्यक है; एककी भी न्यूनता कार्यको फलीभूत होने नहीं देती।
निष्कर्ष --- अंततः कुदेवको मानना मिथ्यात्व है - पत्थरकी नावारूढ समुद्र पार होने सदृश है। अतएव कुदेवों को परमेश्वर - परमात्मा वीतराग अर्हतरूप मानकर पूजा-आराधना-उपासना न करनी चाहिए।
तृतीय परिच्छेदा. गुरुतत्त्व स्वरूप निर्णय---इस परिच्छेदमें सुगुरुका स्वरूप निरूपण किया है। "महाव्रतधर धीरा, भैक्ष्यमात्रोपजीविनः सामायिकस्थ धर्मोपदेशका गुरवो मतः"
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अर्थात् निष्कलंक, निरतिचार, अहिंसादि पंचमहाव्रतधारी कष्ट आपत्ति आदिमें भी व्रतको कलंकित न करके धैर्यधारी; चारित्रधर्म और शरीर निर्वाहके लिए बयालीस दोष रहित माधुकरीभिक्षावृत्तिधारी (बिना धर्मोपगरणके किसी प्रकारका परिग्रह न रखें); राग-द्वेष रहित, मध्यस्थ परिणामी, और आत्मोद्धारक रत्नत्रय रूप एवं स्यादवाद अनेकांत रूप सर्वज्ञ अरिहंतादिकी प्ररूपणानुसार भव्य जीवोंके उपदेशक ऐसे लक्षणधारी गुरुओंके गुण लक्षण वर्णित करके उनके पालने योग्य पाँच महाव्रत (प्राणातिपात विरमण, मृषावाद विरमण, अदत्तादान विरमण, मैथुन विरमण, परिग्रह विरमण) का तथा उनकी प्रत्येककी पाँच याने पचीस भावनाका स्वरूप विशद रूपमें वर्णित किया है। तदनन्तर सर्वविरति चारित्रधारी साधुयोग्य, चारित्रके सहयोगी एवं चारित्र निर्वाहके दृढ़ संबल रूप प्रयोजन या प्रसंगानुसार आराध्य 'करणसित्तरी और निरंतर आराध्य 'चरणसित्तरी दोनोंके ७०+७० १४० भेदोंका विस्तृत रूपमें विवरण करते हुए दोनोंका परस्पर अंतर स्पष्ट किया है। निर्ग्रन्थके भेद--- 'जीवानुशासन' सूत्रकी वृत्ति, 'निशीथ' सूत्रकी चूर्णि, 'भगवती सूत्र'की संग्रहणी आदि आगम प्रन्थानुसार उत्सर्ग अपवाद मार्गानुरूप वर्तमानकालमें दो प्रकारके बकुश निर्गथपना (इसके दोभेद-दस उपभेद) और कुशील निर्बंधपना (इसके भी दो भेद, दस उपभेद) ही पालन करना संभाव्य है। अतः अन्य तीन प्रकारका निर्ग्रथपना व्यवच्छेद हो गया है। साधु जीवनमें लगनेवाले अतिचारों की शुद्धिके लिए प्रायश्चित हो सकता है, लेकिन, उन प्रायश्चित्तोंकी चरमसीमा उल्लंघनकर्ता चारित्रभ्रष्ट माना जाता है। इस प्रकार सुगुरुके स्वरूप विश्लेषण करते हुए तृतीय परिच्छेद सम्पन्न होता है।
चतुर्थ परिच्छेदः - कुगुरु स्वरूप निर्णय "सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः ।
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