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-असंख्यात-अनंतका स्वरूप निरूपण किया गया है। इन्द्रिय द्वार---पांच इन्द्रियके बाह्याभ्यन्तर भेदोंके संस्थानादि द्वारोंसे विवेचन और द्रव्येन्द्रिय या भावेन्द्रियोंकी लब्धि-उपयोगादिकी स्पष्टता श्वासोच्छवास, द्रव्यप्राण-भावप्राणके भेद, आठ प्रकारकी आत्मा, पांच प्रकारके देवोंकी गतिआगति-विकुर्वणा-लब्धि-कायस्थिति-अवगाहनादिका वर्गीकरण, पर्याप्ति-(आत्मिक शक्ति) पर्याप्तअपर्याप्तके भेदोंका वर्गीकरण, पर्याप्ति प्राप्तिकी योग्यता, आहार---सचित्त-अचित्त-मिश्र और ओज-रोम-कवल एवं आभोग-अनाभोग तथा मनोज्ञ-अमनोज्ञ आदि आहारके भेद, गति---स्थानाधारित आहार स्वरूप और अंतमे मिथ्यात्व-सास्वादन-मिश्र-अविरत सम्यक दृष्टि-देश विरति-प्रमत्त संयतअप्रमत्तसंयत-निर्वृत्ति बादर (अपूर्वकरण)-अनिर्वृत्ति बादर (अनिर्वृत्तिकरण)-सूक्ष्मसंपराय, -उपशांत मोह,-क्षीण मोह-सयोगी के वली-अयोगी के वली-इन चौदह गुणस्थानक (अनादि अनंतकालीन निगोदके अव्यवहार राशिमें जीवके अत्यधिकतम निकृष्ट स्वरूपसे संपूर्ण शुद्ध निर्मलतम स्वरूप पर्यंत क्रमसे विशुद्धतर गुणप्राप्ति) पश्वात् जीवकी स्थिति-स्थानके विशिष्ट वर्णन, भेदोपभेद, स्वरूप, स्वामी-स्वामीके लक्षण या गुणादिका वर्णन करते हुए उन गुणस्थानकाश्रयी जीव, योग, उपयोग, ज्ञान, लेश्या, हेतु, भाव, कर्म, प्रकृति, उसके बंध-हेतु-उदयादि नानाविध जीवके आनुषंगिक विषयोंका १६२ द्वारोंसे, ७९ यंत्रोंसे एवं पंचसंग्रह, कर्मग्रन्थादि अनेक शास्त्रों की शास्त्रीय साक्षियों के अवलम्बनसे सूक्ष्म निरूपण करके इस प्रकरणको पूर्ण किया है। अजीवतत्त्व---विभिन्न अंग-पुद्गल परमाणुके भंगादिको स्पष्ट करनेवाले इकतीस चित्रों से सुशोभित द्वितीय अजीवतत्त्व प्रकरणका प्रारम्भ अजीवके मुख्य भेदों के यंत्र-वितरणसे किया गया है। जिसके अंतर्गत धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और कालइन पाँच अजीव तत्त्वोंका द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और गुण-इन पाँच द्वारों से सामान्य परिचय करवाया गया है। तत्पश्चात् प्रथम तीन अजीव द्रव्योंको छोड़कर शेष दोका विशिष्ट विवरण दिया है। जिसमें पुद्गलास्तिकायके स्वरूप निरूपणमें स्कंध-देश-प्रदेश-परमाणुके संबंधमें सत्पद, द्रव्य, क्षेत्र, स्पर्शना, काल, अंतर, भाग, भाव, अल्पबहुत्वादि द्वारोंसे प्रथम (आदि-मध्यम-अंतवाले) आनुपूर्वी, (आदि-मध्य-अंत रहित) अनानुपूर्वी एवं (केवल आदि-अंतवाले-मध्य रहित)अवक्तव्य स्कंध स्वरूपको स्पष्ट किया है। व्यवहार नयसे लोकस्वरूपका (चौदह राजलोकके प्रतर-प्रदेशाश्रयी संपूर्ण स्वरूपाकृति लोक और अलोकमें श्रेणियाँ; दश दिशायें-उनका उद्भव-संस्थान-आयाम-द्रव्य-प्रदेशादि द्वारोंसे स्पष्टीकरण; लोक-अलोक-लोकालोकके चरम-अचरम-चरमाचरम खंडोंका स्वरूप निरूपण) परमाणु पुद्गलके एक-दो-तीन आदि प्रदेश आश्रयी छब्बीस भंगोंका (प्रकार) भिन्न भिन्न चित्राकृतिसे आलेखन; क्षुल्लक प्रतर, रुचक प्रदेशादिको समझाते हुए जीव-कर्म सहित संसारी, कर्म रहित सिद्ध---और अजीवकी स्थिति; दशों दिशा और लोकमें अजीवके चरमांतोंका स्पर्श-इन सबको यंत्र-तालिका-चित्राकृतियोंसे स्पष्ट किया है। पुद्गलके सद्भाव-असद्भावके भंग, द्रव्य-द्रव्यदेशके भंग, परमाणु पुद्गलकी प्रदेश स्पर्शना पुद्गलके संस्थान स्वरूपके चित्र एवं यंत्रसे आलेखन, जीवके मरणोपरान्त अन्य स्थानमें उत्पन्न होने के लिए अपांतराल गतियों के ऋजु-वक्रादि प्रकारों को
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