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परिवार, वाणी; पराक्रम भुवनसे अभ्यास प्राप्त बुद्धि; सुख स्थानसे वृद्धावस्थाकी परिस्थिति, हार्दिक विचार; पुत्रस्थानसे भविष्यका ज्ञान, आराध्य देव, तांत्रिक विद्या, गत जन्मकृत पुण्य, विद्या, याददास्त; सप्तमसे दाम्पत्य जीवन-जाहेर जीवन, कीर्ति; मृत्यु स्थानसे योगाभ्यास, गूढज्ञान, अकस्मात, ओपरेशनादि; भाग्य स्थानसे प्रवास, भाग्योदय, आध्यात्मिक ज्ञान, पूजा, 'धार्मिक क्रिया, पूर्व जन्मकृत कर्म, तीर्थयात्रा, गुरु; कर्मभुवनसे जाहेर-जीवन, संन्यास, ईज्जत, कीर्ति; व्यय भुवनसे गति, मोक्ष, लम्बी बिमारी, कठिनाईयाँ, कर्ज, शय्या-सुख, बंधन, गुप्त दुश्मन आदिका संकेत मिलता है।
'सारावली बृहज्जातक में संन्यासी के योग दर्शित किये हैं, जिसमें से कुछ महत्वपूर्ण योग संक्षिप्तमें दिये जाते हैं। जिस कुंडलीमें जितने ज्यादा योग हों उतनी अधिक मात्रामें सफलता या शक्यता प्राप्त होती है।
प्रव्रज्या संन्यास योग:- (१) शनि अथवा लग्न पर चंद्रकी दृष्टि (२) तीन ग्रह उच्चके, (३) गुरु ग्रह केन्द्र या त्रिकोण स्थानमें बलवान (४) सूर्य और चंद्रके, गुरु और बुधके साथ सम्बन्ध (५) गजकेसरीयोग, (६) पंचमहापुरुष योगसे एक से ज्यादा योग (७) एक राशिमें चार या उससे अधिक ग्रह, (८) भाग्य और व्यय भुवनके साथ शनि और केतुका संबंध (९) लग्नेश एवं कर्मेश चर राशिमें, भाग्येश बलवान-स्वगृही (१०) पंचम-पुत्रस्थान और सप्तम-स्त्रीस्थान पापग्रहसे दूषित हों (११) भाग्येश-कर्मेश, भाग्येश-व्ययेश, कर्मेशव्ययेश का संबध-परिवर्तन योग (१२) भाग्य भुवन बलवान, भाग्येश बलवान, भाग्येश स्वगृही (१३) लग्नेश उच्चका, केन्द्र या त्रिकोणमें गुरु से दृष्ट अथवा दो शुभ ग्रह-सप्तम या दसम स्थानमें (१४) अनफा योग-चंद्रसे बारहवें स्थानमें ग्रह हों (१५) अष्टम स्थानमें पाँच ग्रह हों; अष्टम या द्वादशवें गुरुकी दृष्टि हों (१६) चर राशिके लग्नमें, केन्द्र में, गुरु, शुक्र केन्द्र में हों; तुलाका उच्चका शनि हों तो अंशावतार योग होता है। राजा तुल्य लक्ष्मीवान, तीर्थाटन कर्ता, शास्त्र और आध्यात्मिक क्षेत्रका ज्ञाता होता है। (१७) केन्द्र या त्रिकोणमें चार-पाँच ग्रह स्वगृही, बलवान, उच्चके बनते हों तब अधिक बलवान ग्रहानुसार प्रव्रज्यायोगका फल प्राप्त होता है (१८) भाग्य भुवनमें गुरु हों और लग्न एवं चंद्र पर शनिकी दृष्टि हों तब वैराग्यकी शक्यता होती है। (१९) लग्न और भाग्यभुवन पर लग्नेशकी दृष्टि हों, लग्नेश-भाग्येशका परिवर्तन योग हों, लग्नेश-भाग्येशकी युति लग्न या भाग्यभुवनमें हों; लग्नेश-लग्न स्थान में और भाग्येश भाग्यस्थानमें स्वगृही-बलवान हों। (२०) कर्मभुवनमें सूर्य-चंद्र-गुरु निर्बल हों, नीच राशिके या पापग्रह के साथ हों और उस पर शनिकी दृष्टि हों (२१) लग्नेश पर चंद्रकी दृष्टि हों या लग्नेश चंद्रके साथ हों, कर्मेश निर्बल होकर स्त्री भुवनमें हों, धनेश और सप्तमेश संन्यस्त योग करें तब व्यक्ति आसक्तियुक्त संन्यासी बनता है। (२२) शुक्र, सूर्य, मंगल और शनिः या चंद्र, मंगल, गुरु, शनि; वा गुरु, मंगल, सूर्य, शनि--वृषभ, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर और मीन राशिमें
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