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छोड़ते है। कोई भी ग्रह अपने स्थानसे द्वितीय-षष्ठम्, एकादश और द्वादशवें स्थान पर दृष्टि नहीं करता है। सूर्य-मंगल की उर्ध्व, शक्र-बुधकी तिर्यक, चंद्र और गुरुकी सम (सामने), और राहु-शनिकी दृष्टि निम्न मानी गई है। ग्रहका पारस्परिक संबंध--- ये संबंध पाँच प्रकारके माने गये हैं.११ . (i) युति - एक स्थानमें एकसे अधिक ग्रहोंका बिराजमान होना। (ii) प्रतियुति- एक ग्रह अपने स्थानसे बराबर आमने सामने याने सप्तम् स्थानमें रहे हुए
ग्रहकी और जो संबंध रखता है। (iii) दृष्टि - प्रत्येक ग्रह अपने स्थानसे जिस स्थानको और जिस ग्रहको देखता है उस
स्थान या ग्रहके साथ उसका दृष्टि संबंध होता है । परिवर्तन-- स्थानाश्रयी परिवर्तन-जैसे गुरु ग्रह मंगल ग्रहके गृहमें और मंगल ग्रह, गुरुके
गृहमें बिराजमान हों; इन दोनोंका परस्पर असरकर्ता जो संबंध होता है वह
परिवर्तन संबंध कहलाता है। एकतर --- इस संबंधमें One Sided Relation की भाँति एक ओर से ही संबंध स्थापित
होता है। दूसरा, सामनेवाला संबंध नहीं रखता है। इसके भी दो प्रभेद है -एकतर दृष्टि सम्बन्ध और एकतर स्थान सम्बन्ध। एक ग्रह जिस स्थान पर दृष्टि करता है, उसी स्थान पर रहा हुआ ग्रह प्रथम ग्रह पर दृष्टि नहीं करता है-जैसे-मंगल चौथी दृष्टिसे जिस ग्रहको देखता है, उस चौथे स्थान पर रहा वह ग्रह मंगलकी ओर दृष्टि नहीं करता है। इस तरह यह एक ओरका होनेसे एकतर दृष्टि सम्बन्ध बनता है। एक ग्रह जिस ग्रहके गृहमें बैठा हों, वह ग्रह उसीके गृहमें न रहकर अन्यके गृहमें बैठा हों-जैसे-गुरु प्रथम स्थानमें अर्थात् मंगलके गृहमें रहा हुआ है, लेकिन मंगल, गुरुका नवम् या द्वादशम् स्थानमें न रहकर पंचम स्थानमें बिराजमान हुआ हों तब यह एकतर स्थान सम्बन्ध होता है। जिस स्थानमें जो राशि रही हुई है उस राशिका स्वामी बारह स्थानमें से जिस स्थानमें बिराजित हों वहाँ यह क्या फल प्रदान करता है तत्संबंधी
तलिका दृष्टव्य है।१२ प्रथमभाव द्वितीय भाव
तृतीय भाव लग्नेश नीरोगी, आयुष्यवान,
धनवान, आयुष्यवान, बलवान अच्छेभाई-मित्र, दानवीर, बलवान,राजा अथवा
राजा वा जमींदार, धार्मिक- शूरवीर, बलवान, धार्मिक जमींदार होता है।
होता है। कृपण, व्यवसायी, धनवान, व्यवसायी, लाभवान,
कूरसे-भाईसे क्लेश नहीं, अच्छा कार्यकर्ता, प्रसिद्ध, अपराधी, नीच, अनर्थकारी, शुभसे-राजासे विरोध उद्वेगी, अधिक भूखा
मंगलके कारण चोर होनेवाला होता ही।
होता है।
धनेष
सुखी
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