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ताम्रपत्रादिका संस्कृत-प्राकृत-गुजराती-हिंदी-उर्दू-प्राचीन संस्कृत-ब्राह्मी लिपि आदिमें प्राप्त यथा
सर्व साहित्यका संपूर्ण अवलोकन-अध्ययन-मनन किया एवं एक स्थितप्रज्ञकी अदासे समाजको ऐतिहासिक, भौगलिक, खगोलिक, वैज्ञानिक, राजकीय, सामाजिक, दार्शनिक, धार्मिक, तात्त्विकादि विभिन्न प्रकारके अध्ययनके लिए तुलनात्मक विचार शैलीका दृष्टि बिंदु प्रदान किया। उस ओर योग्य पथ प्रदर्शन किया-“वे अपनी प्रसार विद्वत्ता, प्रतिभा और भारतीय हिन्दू संप्रदायोंके सूक्ष्म अध्ययनके कारण बहुत प्रसिद्ध थे। प्राचीन भारतके इतिहासके संबंधमें उनका ज्ञान इतना विशाल था कि गुजरातके इतिहासकी संस्कृतमें लिखी पुस्तकका संदर्भ देकर जैन लायब्रेरी - अहमदावाद - से प्राप्तभी करवायी.....कई एतिहासिक आर साहित्यिक विषयों पर मेरा उनसे पत्र व्यवहार होता रहा। अभी भी मेरे हृदयमें उनके प्राचीन भारतीय इतिहासके सूक्ष्म अध्ययनके प्रति पूर्णश्रद्धा
है।"१२१
ऋग्देवका बृहत्काय ग्रंथ डो. होर्नलके परामर्शसे विदेशसे प्राप्त करके उसका अध्ययन किया था, तो विदेशी डो. हंटरकृत 'भारतीय इतिहास को भी पढ़ लिया था। इतना ही नहीं लंदनकी नवम ओरिएंटल कॉन्फ्रेंसकी संपूर्ण कार्यवाहीका परिचय भी प्राप्त किया था। अंग्रेजीमें प्रकाशित पाश्चात्य साहित्य-जैसे वेदकी उत्पत्ति विषयक मैक्समूलरके विचार, जैन और बौद्ध धर्मके बारे में प्रो.वेबर, प्रो.जेकोबी, डो.बूलर, डो.होर्नल, जन.कनिंघम आदिके अभिप्राय प्रदर्शित करनेवाले धर्मदर्शन-इतिहास-साहित्यादिका भी अभ्यास करके पूर्वकालीन आचार्योंकी अविच्छिन्न परम्पराको सिद्ध करनेका सफल प्रयत्न किया।
केवल शास्त्रीयाधार ही नहीं लेकिन नूतन, भौगोलिक, पुरातत्त्व एवं वैज्ञानिक अनुसंधानोंसे भी ज्ञात होकर आधुनिक शिक्षितोंके मनकी शंकाओंका युक्ति युक्त समाधान देते है। 'जैन तत्त्वादर्श' ग्रंथके सप्तम परिच्छेदके कुछ प्रारम्भिक पृष्ठ दृष्टव्य है जो उनकी समन्वयात्मक कुशाग्र बुद्धिका परिचय देते हैं। जैन शास्त्रोमें वर्णित तथ्योंकी प्रमाणिकता आधुनिक पद्धतिसे तर्कबद्ध और शोध प्रमाणोंके आधार पर सिद्ध की है जो उन्हें तत्कालीन विभिन्न पत्र-पत्रिकायें एवं ग्रंथोंसे प्राप्त थीं। जो उनके विशाल अध्ययन और मौलिक विद्वत्तापूर्ण पांडित्यका प्रमाण पेश करती है।
भारतीय दर्शनोंके और धर्मोके आधुनिक श्रेष्ठ मर्मज्ञ विद्वान पं. श्री सुखलालजीने आपको श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए लिखा है कि-"उनका प्रधान पुरुषार्थ उसीमें था कि जितना हो सके उतना अधिक ज्ञान प्राप्त करना। उनहोंने शास्त्र व्यायामकी कसौटी पर अपनी बुद्धिको आजीवन कसा था.........यदि जैन श्रुत वारिधिका ही पान किया होता और उसे संभाला होता तो भी आप बहुश्रुतके रूपमें मान्यता पा जाते, लेकिन आपने वर्तमान देशकालकी विद्या-समृद्धि देखी, नये साधन निरखे और भावि जिम्मेदारी भी सोच ली। आपकी अंतरात्मा वेचन बनी। स्वयंसे जितना हो सके उतना कर लेनेका निश्चय किया और विशाल समीक्षात्मक अध्ययानन्तर जो स्वतंत्र रूपसे देनाथा वह अपने ग्रंथोमें उंडेल दिया............बहुश्रुतपनेकी भागीरथीमेसे छलकती संशोधक वृत्ति और ऐतिहासिक वृत्ति भावि संशोधक और इतिहासविदोंको नूतन प्रासाद बांधनेमें नींवका कार्य देगी।"१२२
“वेदों, ब्राह्मणों उपनिषदों, स्मृतियों, बौद्ध ग्रंथो एवं ईसाई धर्मादि संबंधित पुस्तकोंका शायद ही किसी जैनाचार्यने । इतना विशाल अध्ययन किया होगा या अपनी रचनामें उसके उद्धरण दिए होंगे।"१२३
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