Book Title: Satya Dipak ki Jwalant Jyot
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 67
________________ पर अनशन करके वी.सं ५७६में स्वर्गवासी हुए। इनसे वयरी शाखा निकली। इन्द्रने इनका स्वर्गवास जानकर रथावर्त गिरि आकर वंदना-प्रदक्षिणा की। (इनके बाद दशपूर्व और चार संघयण बलका' विच्छेद हुआ।) आर्य वज्रसेन सरि --- जन्म वी.सं. ४९२, दीक्षा-५०१. यगप्रधान पद ६१७ और स्वर्गवास वी. ६२०में हुआ। ये आर्य वज्र के शिष्य थे। सोपारकमें बारह वर्षीय अकाल प्रान्ते श्री जिन और उनके चार पुत्र नागेन्द्र-निर्वृत्ति-चंद्र और विद्याधरको प्रतिबोधित करके दीक्षा दी। उन चारोंसे उनके नाम निष्पन्न चार कुल हुए। 'लक्ष्यमूल्यके चावलकी प्राप्तिसे सुभिक्ष'की गुर्वाणी से आधारित आगाही करके जिनदत्त और ईश्वरी के सर्व परिवारको बचा लिया। प्रतिबोधित करके अ कल्याणके लिए सिंचित किया। आर्य चंद्रसूरि---इनसे चंद्र गच्छका प्रादुर्भाव और सामंतभद्रसे बनवासी गच्छका प्रारम्भ हुआ। सामन्त भद्रजी--विक्रमकी द्वितीय शताब्दिमें 'आप्त मीमांसा' ग्रंथकी रचना की। बहूलता से वे बनजंगलोमें-एकान्तमें रहते थे इसलिए निर्ग्रन्थ गच्छका नाम 'बनवासीगच्छ' हुआ। श्री वृद्धदेव सूरि ---स्वर्गवास वी.सं.६९६ → श्री प्रद्योतन सूरि → श्रीमानदेव सूरि ---तक्षशिला श्री संघकी महामारी शांतिकरण हेतु नाड़ोलमें 'श्री लघु शान्ति स्तव' रचकर तक्षशिला भेजा जिसके पाठादिसे उपद्रव शान्त हो गया। श्री मानतुंग सूरि---४८ तालोंकी जंजीरे तोड़नेके निमित्तभूत चमत्कारिक-प्रभावशाली भक्तिरस भरपूर 'भक्तामर स्तोत्र' और रोगोपशाताकारक-धरणेन्द्र देव प्रदत्त अठारह मंत्राक्षराधारित भयहर 'नमिउण स्तोत्र' के रचयिता श्री मानतुंगजीका जन्म वाराणसीके ब्रह्म क्षत्रिय धनदेव श्रेष्ठिके घर हुआ था। प्रथम वे दिगम्बर साधु चारुकीर्ति से प्रतिबोध पाकर दीक्षा ग्रहण करके महाकीर्ति बने। तदनन्तर निज भगिनि प्रेरित श्वेताम्बरीय दीक्षा श्री अजितसिंहजीके पास ली और मानतुंग नामसे प्रसिद्ध हुए। तपोविधिपूर्वक आगम ज्ञाता बने। गुरुने आचार्य पद प्रदान किया। उन्होंने जिनशासन प्रभावनाके अनेक कार्य किए। वीर सूरि → जयदेवसूरि , देवानंद सूरि (स्वर्ग:वी.सं. ८४५) → विक्रमसूरि (स्वर्ग-वी.सं. ८८२) → नरसिंह सूरि → श्री समुद्र सूरि (वी.सं ९९३ कालिकाचार्यजीने सांत्सरिक प्रतिक्रमण७२ भा.सु. ५ के बदले भा.सु. ४ के दिन करना प्रारम्भ करवाया वी.सं. १०००। सत्यमित्राचार्यके पश्चात् सर्व पूर्वका ज्ञान विच्छेद हो गया) , (द्वितीय) श्री मानदेव सूरि → श्री विबुधप्रभ सूरि → श्री जयानंद सूरि → श्री रविप्रभसूरि-इन्होंने वी.सं ११७०में नाड़ोलमें श्री नेमिनाथ भगवंतकी प्रतिष्ठा करवायी। (वी. सं. १११०में युगप्रधान- 'तत्त्वार्थाधिगम सूत्र' के रचयिता श्री उमास्वाति हुए) → श्री यशोदेव सूरि → श्री प्रद्युम्न सूरि-शास्त्रार्थ निपुण, जैन एवं वैदिक दर्शन निष्णात, ग्वालियर और त्रिभुवनगिरिके महाराजाओं के प्रतिबोधक श्री प्रद्युम्न सूरिजी म. महान प्रभावक आचार्य थे। उनके शिष्य राजकुमार अभयदेवने दीक्षा लेकर विविध विषयोंमें निष्णात बनकर 'सम्मति तर्क' ग्रन्थ पर २५००० श्लोक प्रमाण टीका 'वाद महार्णव' की रचना की। (40) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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