Book Title: Saraswati 1935 07
Author(s): Devidutta Shukla, Shreenath Sinh
Publisher: Indian Press Limited

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Page 14
________________ सरस्वती [भाग ३६ जो वास्तव में हिन्दी की प्रतिनिधि पत्रिका कही के डंक के दो मंजिला नीचे थी। यह बन्द और जाय । हिन्दी-पत्रिकाओं की ग्राहक-संख्या अत्यन्त अँधेरी जगह थी। खैर, अब मैं कर ही क्या सकता कम है, कदाचित् ही किसी की ६००० से अधिक हो। था ? मुझे इसी से संतोष करना पड़ा। ऐसी दशा में शीघ्र से शीघ्र एक ऐसी पत्रिका की आव- हमारे बहुत-से पाठक जहाजी यात्रा के आराम श्यकता है जिसके द्वारा मध्यवर्ग के ऊँच और नीचे और तकलीफ़ से परिचित होंगे, इसलिए मैं विस्तार दर्जे के लोगों में हिन्दी-साहित्य के प्रचार का उद्देश के साथ उनका वर्णन न करूंगा। यात्री-जहाज़ के सिद्ध हो सके। मैने सोचा कि यदि अमरीकन ढंग विषय में साधारण तौर पर हमारी जो धारणायें पर पत्रिका निकाली जाय, जहाँ कि मूल्य बहुत कम होती हैं उनसे वह भिन्न होता है। यहाँ मैं पाठकों रक्खा जाता है, करोब करीव उसका आधा जो को यह बता देना चाहता हूँ कि तकलीफों के सम्बन्ध कि हम 'भारतवर्ष में देते हैं, तो हम हिन्दी-भाषी में हमारा भय बहुत अतिशयोक्तिपूर्ण होता है। मैंने जनता के एक बड़े भाग तक पहुँच सकेंगे । अभी हम इटालियन लाइन लायड ट्रिस्टिनी के जहाज से यात्रा की वैसा नहीं कर सकते, क्योंकि प्रकाशन की वर्तमान और जहाज़ पर चढ़ने से पूर्व हमारे मन में भय की पद्धति अधिक व्यय-साध्य है। जो आशङ्कायें रहती हैं उनका मुझे कोई सबूत नहीं इस प्रकार अपनी पत्रिका और स्टैंडर्ड साहित्य मिला। जहाज़ के कर्मचारी बड़े ही विनम्र होते हैं को बहुत बड़े पैमाने पर छापने की आवश्यकता से और वे यात्रियों की सहायता करने के लिए मदेव प्रेरित होकर मैंने रोटरी प्रिंटिंग मशीन का आर्डर तैयार रहते हैं। भोजन बहुत अच्छा और स्वादिष्ट दिया । योरप जाने और वहाँ प्रचलित विभिन्न कार्य- मिलता है। कई प्रकार का भारतीय भोजन भी वे प्रणालियों के देखने का इसे मैंने अच्छा अवसर देते हैं और यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ कि समझा । २३ मई से पहले मैं नहीं रवाना हो सका, व्यक्तिगत माँगों का वे कितना ध्यान रखते हैं ! कोई यद्यपि इसमें सन्देह था कि समुद्र शान्त मिलेगा। भी शाकाहारी अपनी रुचि के अनुसार भिन्न भिन्न मुझे समुद्र-यात्रा, समुद्री-बीमारी और उनसे सम्बन्ध प्रकार का भोजन प्राप्त कर सकता है। फल सुरक्षित रखनेवाली समस्त परेशानियों का सदैव बड़ा भय रूप में और यथेष्ट मात्रा में मिलते हैं। रहा है। परन्तु मैं अपनी इच्छा के अनुसार कार्य आम तौर से सब यात्री-जहाजों में चार दर्जे होते नहीं कर सकता था, क्योंकि मुझे प्रेस और अपनी हैं। पहला दर्जा, दूसरा दर्जा, दूसग इकानोमिक शूगर कम्पनी के बहुत-से महत्त्वपूर्ण मामलों को साफ़ दर्जा और डेक । हमारे जहाज़ के पहले दर्जे में बहुतकरना था। मेरे बहुत- मित्रों ने १० मई को रवान में भारतीय थे, जिनमें श्रीयुत घनश्यामदास बिड़ला, हान की सलाह दी, परन्तु मैं वैसा नहीं कर सका। और सर चिमनलाल सीतलवाद मुख्य थे। इकाकभी कभी मुझे बड़ी निराशा होती थी, क्योंकि यात्रा नोमिक दर्जे में लाहौर की मिसेज़ दत्त थीं। ये से पूर्व मुझे जो कार्य करने बाक़ी थे उनका अन्त ही भारतवर्ष की कुछ छात्राओं को योरप के शिक्षान मिलता था। खैर, मैने यथासम्भव उन्हें समाप्त सम्बन्धी वातावरण से परिचित कराने के लिए वहाँ किया और 'एस० एस० कोन्टेरेसो' नामक जहाज़ से अपने साथ ले जा रही थीं। जहाज़ खूब भरा था। यात्रा करने के लिए लिखा-पढ़ी की। मेरे कलकत्ता के इस प्रकार की यात्रा में एक ऐसा भव्य अवसर मित्रों ने, जिनके सुपुर्द मैंने यह काम किया था, देरी मिलता है जो अन्यत्र सम्भव नहीं होता। भूमंडल के कर दी। इससे जहाज में मुझे अनुकूल स्थान न मिल विभिन्न भागों के लोगों का एक कासमोपालिटन समूह सका । अन्तिम घड़ी में मुझे एक 'बर्थ' मिली जो ऊपर दम अच्छे दिन एक साथ व्यतीत करने के लिए एकत्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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