Book Title: Sansar aur Samadhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 19
________________ शंकर की भाषा में - पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम् । इह संसारे बहुदुस्तारे, बहुदुस्तारे, कृपयापारे पाही मुरारे ! हे मुरारी! हे भगवान्! जहां बार-बार जन्म लेना है, बार-बार मरना है और बार-बार मां के गर्भ में सोना है, ऐसे इस 'बहुदस्तारे' बड़ी मुश्किल से पार किये जाने वाले संसार से मेरी रक्षा करो, मुझे पार लगाओ। शंकर बारीक-बुद्धि सम्पन्न आचार्य हैं। संसार से तारने की प्रार्थना में संसार का स्केच भी खींच लिया है। शंकर ने संसार का स्वरूप आंका है। संसार क्या है, तो कहा- जहां बारबार जन्म होता है, बार-बार मरण होता है, मां के गर्भ में बार-बार रहना पड़ता है। शंकर द्वारा बार-बार पुनरपि पुनरपि कहना संसार की संसरणशीलता का ही परिचय देता है। इस संसरणशीलता का दूसरा चहेता नाम ही अध्रुवता है। एक बात पक्की है कि संसार अध्रुव है, अशाश्वत है। सब कुछ प्रतिक्षण बदलता जा रहा है यहां। जैसे गिरगिट अपना रंग बदलता है, वैसे ही संसार का भी अपना रूप बदलता जा रहा है। दल-बदल करना संसार का निजी धर्म है। पानी में लकीर खींचो। कितनी देर रहेगी! खींचते-खींचते ही मिट जायेगी। ऐसा ही है संसार । पलक झपकते - झपकते ही संसार में बदलाहट आ जाती है। देखते-देखते ही आदमी लुढ़क पड़ता है। जैनों ने तीन शब्द दिये हैं- आस्रव, संवर और निर्जरा। जैसे ये तीन बातें जीव के साथ लागू होती हैं, वैसे ही संसार के साथ भी । आस्रव यानी आना, संवर यानी रुकना और निर्जरा यानी हटना। इन तीनों को ही दूसरे शब्दों में जन्म, जीवन और मृत्यु कह सकते हैं। जन्म और मृत्यु के कारण जिन्दगी तो एक दिन ठुकराएगी ही। जिन्दगी तो बेवफा है। मृत्यु जिन्दगी की महबूबा है, जो साथ लेकर जाएगी। चाहे हंसते चलो, या रोते सुबकते, आखिर जाना तो है ही। संसार में आये गीत गाने के लिए। गीत गाने के समान जुटाये। बाजे, यंत्र मंगवाये । जैसे ही गीत गाना शुरु किया कि विदाई की वेला आ गयी। संसार में जन्मे, उसी के साथ ही मृत्यु का आग्रह शुरु हो गया। सूर्य पूर्व में उगा, उसी के साथ पश्चिम की ओर रवाना हो चुका। जिंदगी का हर क्षण मौत के द्वार पर दस्तक है। यह जीवन, यह शरीर अंजुलि में रहे हुए पानी के समान है। धीरे-धीरे रिसता है। बहुत जल्दी रीती हो जाती है यह अंजलि। बादलों में बिजली चमकती है। यह जीवन भी उसी संसार और समावि 8 --चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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