Book Title: Sansar aur Samadhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 130
________________ खुद फकीर की आंखें भीग गयी। ओह! ये लोग कैसे हैं? जिनके लिए व्यक्ति जीवनभर श्रम करता है, उसके लिए आखिर कौन है उसका? फकीर ने युवक से कहा- नाटक का पटाक्षेप करो। बहुत कर लिया अभिनय। अब खड़ा हो जा, बोल, तेरी क्या इच्छा है? युवक खड़ा हो गया। मृत्यु मात्र अभिनय थी पर क्या युवक तैयार था संन्यस्त होने के लिए। स्वयं की प्रस्तुति सर्वप्रथम आवश्यक है। दूसरों की ली जाने वाली ओट बहानेबाजी है। स्वयं की कमजोरी को यों मत छिपाओ। गुरु जीवनकल्प के लिए तैयार है; जरूरत है स्वयं की तैयारो की। पन वमन-क्रिया कर रहा है, उसे पहचानें। कस्तूरी वास कर रही है नाभि में। स्वयं की ओर आंखें मुंड़े तो सुरभि का केन्द्र दूर कहां! जरा अपने में डूबो, स्वयं को पहचानो। — बैठ जाएं एकान्त में और सोचें मैं कौन हूँ? कहां से आया हूं? कहां जाना है? किनके साथ रिश्ते रखने हैं? यह प्रक्रिया है अंगुलियां चलाना हत्तन्त्री पर। शायद अभी तो यह लगता है कि वीणा के तार हमें बजाने नहीं आते फिर कहेंगे कि . वीणा के तार ऐसे बज रहे हैं, मानों मैं स्वयं ही तानसेन हूं। रसरी आवत जात है, सिल पर पड़त निशान। करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।। अभ्यास करते-करते सब सध जाता है। अभ्यास ही तो द्वार है सिद्धि का। अध्यात्म अभ्यास की पूर्णता है। अध्यात्म की यात्रा शून्य की यात्रा है। यह कृष्णलेश्या से शुक्लेश्या की यात्रा है। इसे ही मूलाधार से सहस्रार की यात्रा कहेंगे। नाम केवल बहाने हैं। अध्यात्म वास्तव में स्वयं का स्वयं में निवास है। अभी तो लगता है कि तलहटी भी पार नहीं होती मगर बाद में लगेगा एवरेस्ट भी पार हो सकता है। अभी यदि यह यात्रा चढ़ते समय कठिन लगती है, मगर चढ़ना शुरू कर दो तो बहुत जल्दी पहुंच जाओगे। जो व्यक्ति बाहर से हटा, कुछ भीतर का रस पैदा हुआ, शुरू हुई यात्रा अन्तर की, आह्लाद की। बाहर से हटना प्रत्याख्यान है और भीतर लौटना प्रतिक्रमण है। ___ सारा मूल्य अपने आप का है, अपने में शान्त रहने का है। मगर पापों से छुटकारा नहीं होता है। अभी सामायिक तो बहुत होती है, मगर क्रोध एवं कषाय दूर नहीं होते हैं। अभी तो संसार और समाधि 119 -चन्द्रप्रम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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