Book Title: Sansar aur Samadhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 151
________________ है। जहाँ एकाग्रता वहाँ ध्यान और जहां ध्यान वहां जीवन की पहचान। जो ध्यान से चूका को जीवन से चूका, जो ध्यान से जुड़ा वह जीवन से जुड़ा। ध्यान जीवन की समग्र एकाग्रता है। जियो, जीवन जीने के लिये है। जीवन जन्म और मृत्यु के बीच सिर्फटहलना नहीं है, जीवन आनन्द के लिये है, उत्सव के लिये है। जीवन सिर्फ गति के लिये ही नहीं है, गीत के लिये भी है। उसमें संगीत भरो; अन्तर-शक्तियों को तनाव-मुक्त करो। खाओ, मगर ध्यान पूर्वक; पियो, मगर ध्यान के साथ; मौज उड़ाओ, मगर ध्यान को आत्मसात् कर। जीवन की हर प्रवृति में सजगता और निर्लिप्तता का वाक्य-विन्यास करना अपने ही हाथों से अपना वेद रचना है। ध्यानपूर्वक चलना, ध्यानपूर्वक बैठना, ध्यानपूर्वक सोना, ध्यानपूर्वक खाना, ध्यानपूर्वक बोलना समाधि को मंजिल की ओर कदम-दर-कदम बढ़ाना है। अधिकांश साधकों को यह समस्या रहती है कि वे ध्यान के प्रति अभिरुचि होने के बावजूद समाज/संसार को छोड़ नहीं पाते। मेरी समझ से छोड़ना आत्यन्तिक अनिवार्य नहीं है। छूट जाए तो कोई नुकसान नहीं है। न छूटे तो परेशान होने की भी जरुरत नहीं है। आखिर यह परेशानी भी एक सलौने ढंग का तनाव ही है। ध्यान तो हर तनाव के पार है। तनाव से अतिमुक्त करना ही ध्यान का दायित्व है। . ‘तृप्ति' (मूल नाम : ट्राडिल ऑटो, ध्यान-दीक्षित-नाम तृप्ति; बर्लिन, वेस्ट जर्मनी) भी इसी तनाव में उलझी। महावीर को पढ़ा तो महावीर से प्रभावित अवश्य हुई; वह सोचती है कि मैं महावीर के ध्यान-मार्ग पर तो चलूं, किन्तु समाज से अलग-थलग होकर नहीं। __ मैं तो कहूंगा तृप्ति समझी नहीं। महावीर विद्रोह के सूत्रधार नहीं; बोध के सूत्रकार हैं। महावीर खूब रहे, सो जंगलों में रमे और जब साधना सध गई तो शहरों में लौट आये। महावीर बन सको तो अच्छा ही है, पर हर आदमी महावीर की तरह जंगलों में जाकर नहीं रह सकता। अगर हर आदमी जंगलों की ओर कदम बढ़ा ले तो जंगल भी शहर का बाना ओढ़ लेंगे। स्थान बदल जाएंगे, वस्तु-स्थिति से चूंघट नहीं उघड़ेंगे। स्थान-परिवर्तन मात्र से तो शहर जंगल बन जाएंगे और जंगल शहर। स्थान के बदलने मात्र से आदमी नहीं बदल जाता। मुखौटों के बदलाव से स्वभाव में बदलाव कहां आता है। मांसाहार छोड़ने से हिंसा मरती नहीं है, किन्तु हिंसा को मन से देश निकाला दिये जाने के बाद मांसाहार को छूटना ही पड़ता है। इसलिये भीतर के संसार और समाधि 140 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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