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होना विकृतियों से विमुक्त होने का साधु अभियान है । निर्विकार चित्त ही मानवता को द्वन्द्व के शिकंजों से मुक्त करने की पृष्ठभूमि है।
चित्त दर्पण की भांति है। इस पर विकारों विचारों की धूल जम जाती है। उस धूल को पोंछना ही जीवन में निर्मलता की दस्तक है।
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मनुष्य की चित्त - अशुद्धि से पहली मुठभेड़ तब होती है। जब वह बाहरी चकाचौंध 'आत्मसात् करने की कोशिश करता है। मनुष्य जहां भी असार में सार को और सार में असार को आरोपित करता है वहीं वह अन्धकार की ओर अपने दो कदम बढ़ा बैठता है । जड़ को चेतन और चेतन को जड़ मानना ही मनुष्य का अज्ञान है। मानना कोरी भ्रान्ति है ! जीवन में चाहिये ज्ञान की भोर । जानना अभिनव क्रान्ति है। जड़ को चेतन मानने से वह चैतन्य-ऊर्जा से अभिमण्डित नहीं हो जाता। जड़ कभी चेतन नहीं हो सकता और चेतन कभी जड़ नहीं। एक दूसरे पर किया जाने वाला भ्रान्त निक्षेपण ही चित्त पर कीचड़ की परत चढ़ाना है।
वस्तु, अवस्था या परिस्थिति में जीवन-बुद्धि का आरोपण चित्त की मौलिक अशुद्धि है। यदि मनुष्य पदार्थ और चेतना के बीच भिन्नता का बोध कायम रखे, तो अशुद्धि को अन्तर्जगत से कोसों दूर खिसकना पड़ता है। ध्यान इस मौलिक भिन्नता को दर्शानि वाला विवेक दर्शन है।
जिन लोगों को धूम्रपान की आदत है, क्रोध या चिड़चिड़ापन का घेराव है, बाहर के राग के कारण तनाव का अन्तर्मन में जबरन डेरा है, वे ध्यान की दवा का सुबह-शाम अवश्य सेवन करें। अपनी ऊर्जा को केन्द्रित कर ध्यान में समग्रता से जीना चित्त की
अशुद्धियों को कानूनन दिया जाने वाला देश निकाला है। चित्त शुद्धि ही मनुष्य के लिए अन्तरशांति की आधारशिला है। मानवता को शान्ति से प्रेम है और विश्व को मानवता से। शान्ति विश्व का व्यक्तित्व है और मनुष्य का धर्म उस व्यक्तित्व के लिए स्वयं को सर्वतोभावेन समर्पित करना है । मानवता के मूल्यों से जीवन की समग्रता जोड़ना अपने कर-कमलों से विश्व को अभिनन्दन पत्र प्रदान करना है।
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-चन्द्रप्रभ
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