Book Title: Sansar aur Samadhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 165
________________ जीवन नहीं है। वह हमें रुकना या रोकना नहीं सिखाता, वरन् लौटना सिखाता है। वह तो यह प्रशिक्षण देता है कि इसमें गति करो। जितनी तेज रफ्तार पकड़ सको, उतनी तेज पकड़ लो। जब स्वयं में समा जाओगे, तो स्थितप्रज्ञ बन जाओगे। जहां अभी हम जाना चाहते हैं, वहां गये बिना ही सब कुछ जान लेंगे। उसकी आत्मा में प्रतिबिम्बित होगा सारा संसार। परछाई पड़ेगी संसार में हर क्रिया-कलाप की उसके घर में पड़े आईन में। यह असली जीवन है। यह वह जीनव है, जिसमें दौड़-धूप, दंगे-फसाद, आतंक-उग्रवाद की लूंए नहीं चलतीं। यहां तो होती है शान्ति, परम शान्ति, सदाबहार। मन सक्रिय है। ध्यान मन की सक्रियता को हड़पता नहीं है। उसे निष्क्रिय करके शव नहीं बनाता, बल्कि चेतना के विभिन्न आयामों पर उसे विकसित करता चलता है। जिस मन के कमल की पंखुड़ियां अभी कीचड़ से कुछ-कुछ छू रही हैं, ध्यान उन्हें कीचड़ से निर्लिप्त करता है। सूरज की तरह उगाकर उसे अपने सहज स्वरूप में खिला देता है। यानी उसे वास्तविकता का सौरभ दे देता है। यह प्रक्रिया निष्क्रियता और जड़ता प्रदान करने की नहीं है। यह तो विकासशीलता का परिचय देती है। । नाभि में कुण्डलिनि सोयी है। उसे जागृत कर ध्यान चक्रों का भेदन करवाता है। जब व्यक्ति ध्यान के द्वारा चक्रों का भेदन करता है, तो वह नीचे से ऊपर की यात्रा करता है। यह ऊर्ध्वारोहण है, एवरेस्ट की चढ़ाई है। षड्चक्रों का भेदन वास्तव में षड्लेश्याओं का भेदन है। इन चक्रों के पार है वीतरागता, जहां साधक को सुनाई देता है ब्रह्मनाद, कैवल्य का मधुरिम संगीत। ___ ध्यान वस्तुतः आत्म-शक्ति की बैटरी को चार्ज करने का राजमार्ग है। अब यह हम पर निर्भर है कि हम उस बैटरी को कब चालू करें, कब उसका उपयोग करें और उसकी शक्तियों का लाभ लें। आज न केवल बाहरी खतरे बढ़े हैं, वरन् भीतरी खतरे भी बहुत बढ़-चढ़ गये हैं। सच्चाई तो यह है कि बाहर से भी ज्यादा भीतरी खतरे बढ़े हैं। इसलिए आज समस्याओं की पहेलियों को सुलझाने के लिए ध्यान अचूक है। हमें अधिक समय न मिले, तो दर-रोज सुबह चौबीस मिनट ध्यान अवश्य करें। शत्रुपक्ष की बातें छोड़ने की चेष्टा करें और अपने घर में सजी चीजों का आनंद लें। घर लौटने का रस पैदा होते ही मन की एकाग्रता सधेगी। ___ रस जगना जरूरी है। 'रसो वैसः' वह रस रूप है। अपना घर तभी अच्छा लगेगा, जब इसके प्रति रसमयता जगेगी। रसमयता मन की एकाग्रता की नींव है। पिएं हम रसमयता संसार और समाधि 154 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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