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संभावित है। आखिर चपरासी को रिश्वत लेने का पाठ पदाधिकारियों से ही सीखने को मिलता है। अन्तरशुद्धि बहिशुद्धि का अनिवार्य आधार है। ___ मनुष्य इन्द्रियों के जरिये ही भीतर के भावों की तरंगों को बाहरी जगत् में मूर्तरुप देता है, किन्तु उसकी सम्पूर्ण गतिविधियों का आधार-सूत्र चित्त ही है। इसीलिए यह इन्द्रियों का निर्देशक है। अगर एक बात दिमाग में घर कर ले कि चित्त को इन्द्रियों का निर्देशक होते हुए भी आत्मा को सलामी देनी ही पड़ती है,यदि द्रष्टाभाव जीवन्तहो जाये, तो चित्त का संस्कारजन्य शोरगुल मन्दा पड़ जायेगा। तटस्थ-पुरुष के लिए चित्त चरणों का चाकर है।
चित्त का बोध हमें इसकी क्रियाओं के द्वारा होता है। यदि वह सन्तप्त हो जाए तो शरीर की सारी गतिविधियां उससे प्रभावित होंगी ही। आंख सही भले ही हो, किन्तु दर्शन के बाद होने वाले निर्णय का निर्णायक तो भीतर विराजमान चित्त ही है। इन्द्रियों की गतिविधियों के तार चित्त से जोड़ दिये जाने के कारण ही सुख-दुःख के बांसों की झुरमुट के टी-री-टी-टुट-टुट सुनाई देते हैं। मनुष्य द्वारा चित्त के आधीन हो जाना ही जीवन को सबसे बड़ी अशुद्धि है। वो व्यक्ति सम्राट है, जिसने चित्त की बागडोर बखूबी सम्हाल रखी है। ____ चित्त विचारों, संस्कारों, धारणाओं की फसल का बीज है। वे चाहे अच्छे हों, चाहे बुरे महाशून्य की अनुभूति में रोडे ही हैं। अच्छे-बुरे का द्वन्द्व ही तो तनाव की नींव है। विचारों में व्यक्ति अयोध्या जाये या अकूरी, बाहरी रास्तों को ही नापेगा। तटस्थता आत्मसात् हो जाये तो व्यक्ति न तो चित्त के मुताबिक रहेगा, न चित्त के खिलाफ। वह रहेगा जीवन को विपरीत अवस्थाओं से अप्रभावित/अछूता।
चित्त की हू-ब-हू पहचान के बाद प्रवृत्ति रहती है, किन्तु वृत्ति नहीं। प्रवृत्ति अनिवार्यता है, वृत्ति फिसलना है। वृत्ति चित्त की फुदफुदाहट है। चित्त-शून्य पुरुष द्वारा होने वाली प्रवृत्ति मनुष्य को कभी भी आड़े हाथों नहीं बांधती। वृत्ति विकृत हो सकती है। ध्यान विकारों से ही नहीं, विचारों से भी मुक्ति का अभियान है।
विचार चित्त की वासना है। वासना प्रक्षेपण है। वस्तु का मूल्य मनुष्य की वासना में है। पत्थर सिर्फकांच ही नहीं है, हीरा भी है; मन की वासना बुझ जाए, तो कैसे होगा हीरा महिमावान् और काच का अपमान। विचारों में वासना का बसेरा हो जाने के कारण ही तो
संसार और समाधि
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-चन्द्रप्रभ
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