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चाहता है, जो शक्तिपात करता है। शक्तिपात से जो मंजिल मिलती है, वह मंजिल नहीं होती वरन् एक सोपान ही होती है। हां, आत्मजाग्रत साधक का संस्पर्शन और दर्शन स्वयं की ऊर्जा के जागरण में स्वीकारना चाहिये, पर यह कृपा नहीं, मात्र सहकारिता है। यह मात्र शान्त मन की समदर्शिता का वितरण है। असली गुरु तो वीतरागता की मस्ती में जीता है। जिसके पास बैठने और जीने से तुम्हारा मन शान्त, निर्विकल्प और निर्विकार बनता है, वही तुम्हारे लिए गुरु हैं। जहां बैठने से तुम्हारा अशान्त मन शान्त हो जाए, वही तुम्हारे लिए मंदिर है। जिसे निहारने से तुम्हारे लक्ष्य तुम्हारी आंखों से ओझल न हो, वही तुम्हारा भगवान् है।
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संसार और समाधि
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-चन्द्रप्रभ
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